गोटाबया राजपक्षे का श्रीलंका का राष्ट्रपति बनना भारत के लिए एक झटका
तमिल विरोधी और चीन समर्थक छवि रखने वाले गोटाबया राजपक्षे (Gotabaya Rajapaksa) का श्रीलंका के नए राष्ट्रपति (President) बतौर चुना जाना भारत के लिए सुविधाजनक नहीं कहा जा सकता है.
highlights
- तमिल विरोधी और चीन समर्थक राजपक्षे गोटाबया होंगे श्रीलंका के नए राष्ट्रपति.
- इस लिहाज से राजपक्षे का जीतना भारत के लिए झटका साबित हो सकता है.
- चीन के कट्टर समर्थक महिंदा बतौर पीएम कर सकते हैं वापसी.
New Delhi:
तमिल हित (Tamil Issues) से जुड़े मसले हमेशा से ही भारत-श्रीलंका संबंधों में एक बड़ी रुकावट रहे हैं. ऐसे में तमिल विरोधी और चीन समर्थक छवि रखने वाले गोटाबया राजपक्षे (Gotabaya Rajapaksa) का श्रीलंका के नए राष्ट्रपति (President) बतौर चुना जाना भारत के लिए सुविधाजनक नहीं कहा जा सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने संभवतः भविष्य की कूटनीतिक बिसात को समझते हुए ही बेहद सधे शब्दों में राजपक्षे को बधाई दी है. यद्यपि गोटाबया राजपक्षे पहले ही भारत को आश्वस्त कर चुके हैं कि वह निष्पक्ष और समान प्रशासन देंगे. हालांकि श्रीलंका की राजनीति को समझने वाले इस बात से कतई मुतमईन नहीं है कि वास्तव में गोटाबया की नकेल उनके भाई महिंदा राजपक्षे (Mahinda Rajapaksa) के हाथों में रहेगी, जो खुलेआम चीन के साथ गलबहियां कर भारतीय हितों को कई मौकों पर नजरअंदाज कर चुके हैं.
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चीन से नजदीकी के बावजूद भारत को नकारना आसान नहीं
फिर भी भारतीय कूटनीतिक खेमे को यकीन है कि भले ही समग्र राजपक्षे परिवार चीन (China) के काफी नजदीक हो, लेकिन भौगोलिक और राजनीतिक दृष्टि से 'बड़े' कद वाले भारत (India) के साथ अच्छे रिश्ते रखना गोटाबया राजपक्षे की मजबूरी ही होगी. इसके बावजूद यह भी तय है कि निजी हितों और बहुसंख्यक सिंहली (Singhale Majority) आबादी के हितों को तरजीह देने वाले गोटाबया को कूटनीतिक स्तर पर जोड़-तोड़ से काबू में रखना आसान नहीं होगा. यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि गोटाबया के भाई महिंदा राजपक्षे के लगभग एक दशक के शासन में चीन ने श्रीलंका में भारी मात्रा में निवेश किया. यह अलग बात है कि यूएनपी के शासन के पांच सालों में चीन की अधिकांश योजनाओं की रफ्तार धीमी पड़ी है. इस लिहाज से इतना तय है राष्ट्रपति पद का पदभार संभालते ही गोटाबया चीनी हितों को पूरा करने में जी-जान से जुट जाएंगे. ऐसे में चीन की विस्तारवादी नीति भारत के लिए अच्छी-खासी सिरदर्द साबित हो सकती है.
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पत्रकार, एनजीओ और सिविल सोसाइटी में डर का माहौल
लिट्टे (LTTE)के खात्मे में महिंदा राजपक्षे और बतौर रक्षा सचिव गोटाबया राजपक्षे के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है. उस फेर में राजपक्षे बंधुओं ने अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने में कतई कोई संकोच नहीं किया था. ऐसे में सजिथ प्रमदासा (Sajith Premadasa) की पराजय से श्रीलंका के पत्रकार, गैर सरकारी संगठनों, सिविल सोसाइटी से जुड़े लोग अचंभित हैं. उनके लिए गोटाबया की जीत किसी झटके से कम नहीं है. उन्हें लगता है कि गोटाबया की जीत युद्ध अपराध और पारिवारिक सदस्यों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के मामलों की जांच में एक बड़ा रोड़ा साबित होगी. उन्हें यह डर भी सता रहा है कि देर-सवेर महिंदा राजपक्षे श्रीलंका के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करेंगे, तब स्थिति और जटिल होगी. उन्हें एक बड़ा भय यही है कि श्रीलंका जाति और धार्मिक आधार पर अब कहीं और विभाजित होगा. हालांकि एक वर्ग यह भी मान रहा है कि गोटाबया के शासनकाल में श्रीलंका विकास के रास्ते पर आगे बढ़ेगा.
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चीन के हितों को तरजीह मिलना तय
इस लिहाज से देखें तो राजपक्षे का जीतना भारत के लिए झटका साबित हो सकता है. गोटाबया के भाई महिंदा राजपक्षे के राष्ट्रपति रहते चीन और लंका करीब आए. उस वक्त 2014 में राजपक्षे ने दो चीनी पनडुब्बियों (Submarines) को उनके वहां खड़ा करने की इजाजत तक दी थी. अब उनके भाई गोटाबया के जीतने के बाद श्रीलंका और चीन की नजदीकियां फिर बढ़ सकती हैं. इस स्थिति में चीन हिंद महासागर (Indian Ocean) पर अपनी पकड़ ज्यादा मजबूत कर सकता है. चीन लंबे वक्त से इसकी कोशिशों में लगा है. श्रीलंका ने हंबनटोटा बंदरगाह (Hambantota Port) को विकसित करने के लिए भारी लोन लिया था. फिर लोन चुका न पाने पर उसने यह अहम पोर्ट चीन को 99 साल की लीज पर दे दिया. फिलहाल इस पर चीन का ही अधिकार है. चीन ने श्रीलंका को एक युद्धपोत भी गिफ्ट किया हुआ है. ऐसा दिखाया गया कि यह आपसी संबंध मजबूत करने के लिए हुआ, लेकिन ऐसा नहीं है. दरअसल, ऐसा करके चीन हिंद महासागर में अपनी सैन्य पहुंच बना रहा है.
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