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प्रियंका गांधी वाड्रा
बहन प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi) को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने लोकसभा (Lok Sabha Elections) के अबतक के सबसे दिलचस्प मुकाबले में उतार दिया है. जो चुनाव पहले से ही पानीपत की जंग सरीखा बन चुका है, प्रियंका (Priyanka Gandhi) ने उसमें 440 वोल्ट का करंट पैदा कर दिया है. लोकसभा चुनाव 2019 (Lok Sabha Elections 2019) की इस ऐतिहासिक जंग में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने प्रियंका (Priyanka Gandhi) को यूपी के रणक्षेत्र में उतारा है कांग्रेस के करिश्मे के लिए, लेकिन क्या यूपी में प्रियंका (Priyanka Gandhi) की मौजूदगी प्रधानमंत्री मोदी (Narendra Modi) को ही फायदा पहुंचा सकती है?
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सवाल अटपटा लग सकता है, बेसिरपैर का नज़र आ सकता है, लेकिन देश की सियासत का सबसे बड़ा सूबा जिस तरह जातीय और मजहबी गोलबंदी में उलझा है उसका आकलन करने पर ये सवाल बेमानी नहीं रह जाएगा. हो सकता है कि वो आकलन खुद कांग्रेस और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के ज़ेहन में भी हों, लेकिन सियासत में हर दाव के साथ रिस्क तो होता ही है. उस रिस्क से पार पाकर ही फतह हासिल की जा सकती है. प्रियंका की यूपी में मौजूदगी किस तरह अनजाने ही पीएम मोदी और बीजेपी को मदद कर सकती है इसे समझने के लिए पहले समझना होगा यूपी में कांग्रेस का इतिहास.
30 साल से यूपी की सत्ता से बाहर क्यों कांग्रेंस ?
5 दिसंबर, 1989..यूपी में कांग्रेस की सत्ता का ये आखिरी दिन था. कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को सत्ता से बाहर कर जनता दल के नेता मुलायम सिंह यादव इसी दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. उस दिन के बाद से आजतक कांग्रेस यूपी में सत्ता के लिए तरस रही है. कांग्रेस को यूपी की सत्ता तो मिली नहीं, उल्टे कांग्रेस का साल-दर-साल पतन होता गया और आज हालत ये है कि यूपी विधानसभा में सिर्फ 7 विधायक और यूपी से लोकसभा में सिर्फ 2 सांसद कांग्रेस के पास हैं.
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2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट भी महज़ 7.5 प्रतिशत ही मिले थे. ये वो कांग्रेस है, जिसने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में यूपी में रिकॉर्ड सीटें जीती थीं. उस वक्त की 85 में से 83 सीट. वोट प्रतिशत भी रिकॉर्ड 51.03 फीसदी. विधानसभा से लेकर लोकसभा तक सदनों के आंकड़े ही ये बताने के लिए काफी हैं कि राज्य में कांग्रेस का संगठन किस रसातल में पड़ा है.
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तो सवाल ये कि आखिर 1989 के बाद ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस यूपी में सिमटती चली गई. कांग्रेस ने यूपी में खुद को उबारने के लिए जो कुछ किया वो काम क्यों नहीं आया. इस सवाल का जवाब कांग्रेस की बुलंद इमारत का भी गवाह है. जातीय समीकरण के जिस मकड़जाल में उत्तर प्रदेश पिछले 30 साल से उलझा है..उसी बुनियाद पर कांग्रेस ने कभी बुलंदी का आसमान छुआ. लेकिन जब कांग्रेस की बुनियाद में सेंध-दर-सेंध लगी तो यूपी में पार्टी ज़मीन से भी फ़िसलने लगी.
लोहिया, मंडल और कमंडल आंदोलन ने कांग्रेस से छीनी ज़मीन
यूपी में जातीय समीकरणों का मकड़जाल शुरू हुआ लोहिया आंदोलन और पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह के मंडल आंदोलन से. हालांकि वीपी सिंह इससे पहले ही 1987 में बोफोर्स का मुद्दा उठाकर कांग्रेस से किनारा कर चुके थे. कांग्रेस की सियासत कर सत्ता के आसमान पर चमकने वाले यूपी में कांग्रेस के पूर्व सीएम वीवी सिंह ने सीधे अपने आलाकमान प्रधानमंत्री राजीव गांधी को ललकारा था. वहीं से कांग्रेस के किले में पहली सेंध लगी.
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सवर्ण जाति का ठाकुर वोटबैंक राजा मांडा के साथ हो चला. 1989 में वीपी सिंह लेफ्ट और बीजेपी के सहयोग से प्रधानमंत्री बने तो मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर समाज को सीधे-सीधे दो हिस्सों में बांटने का उन पर आरोप लगा. वीपी सिंह पर तो आरोप लगा, लेकिन उनकी सियासत का असल ख़ामियाज़ा भुगता कांग्रेस ने. इसी दौरान लोहिया आंदोलन से पैदा हुए जनता दल में यूपी के बड़े क्षत्रप बनकर उभरे मुलायम सिंह यादव.
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मंडल कमीशन के बाद पिछड़े वर्ग में मुलायम सिंह यादव ने सेंध लगाई. उधर, कांशीराम भी अनुसूचित जाति के वोटबैंक को गोलबंद करने में जुटे थे. मायावती के रूप में जब वो एक तेज़तर्रार युवा महिला नेता लेकर यूपी की राजनीति में आगे बढ़े तो अनुसूचित जाति का एक बड़ा तबका उनके पीछे हो लिया. इस तरह से कांग्रेस का कोर वोटबैंक ठाकुर और अनुसूचित जाति कांग्रेस से छिटकने लगा. इसी बीच 1990 में बीजेपी ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए कमंडल की राजनीति तेज़ की. बीजेपी ने अयोध्या में राममंदिर की ऐसी लहर पैदा की, कि ब्राह्मणों समेत गैर ठाकुरों का सर्वण वोटबैंक भी कांग्रेस के हाथ से निकल गया.
यानी 1989 से पहले तक जो ब्राह्मण और अनुसूचित जाति का वोटबैंक कांग्रेस की मज़बूत बुनियाद हुआ करता था वो पूरी तरह कांग्रेस के हाथ से निकल गया. आज़ादी के बाद से यूपी में कांग्रेस ने गोविंद वल्लभपंत, कमालपति त्रिपाठी, श्रीपति मिश्र, वीर बहादुर सिंह, वीपी सिंह, त्रिभुवन नारायण सिंह सरीखे मुख्यमंत्री दिए..लेकिन 1989 के बाद के हालात में ये सारा समाज वीपी सिंह और कमंडल की राजनीति में उलझकर कांग्रेस से दूर हो गया.
मुस्लिम वोटबैंक में मायावती-मुलायम की सेंध
हालांकि अब भी कांग्रेस के पास एक वोटबैंक था, वो था मुस्लिम वोटर. लेकिन 1990 में कमंडल की राजनीति में जब वोटों का ध्रुवीकरण हुआ तो सत्ता से बाहर जा चुकी कांग्रेस यहां भी पिछड़ गई. 1992 में जब अयोध्या में विवादित ढांचा गिरा तो केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी. ना चाहते हुए भी इसका ठीकरा कांग्रेस के सिर फूटा और मुस्लिम वोटर नाराज़ हुआ. उस पर ज्यादा बुरी हालत इसलिए भी क्योंकि उस वक्त गांधी परिवार सत्ता ही नहीं, संगठन से भी दूर था और प्रधानमंत्री दक्षिण भारतीय पीवी नरसिम्हाराव थे.
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ऐसा माना जाता है कि उत्तर भारत से ताल्लुक ना रखने की वजह से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की रही-सही उम्मीद भी नरसिम्हाराव के दौर में खत्म होती गई. इसी नाज़ुक वक्त में जब अयोध्याकांड को लेकर बीजेपी की कल्याण सिंह सरकार का इस्तीफा हुआ और सत्ता में मुलायम सिंह की वापसी हुई तो उन्होंने मुस्लिमों को अपने पाले में करने के सारे जतन किए. आलम ये था कि विरोधी मुलायम को मुल्ला मुलायम तक कहने लगे.
ख़ैर बदनाम होकर ही सही, मुलायम सिंह ने मुस्लिम वोटों को काफी कुछ अपने हक में कर लिया. बाकी बचे वोटर मायावती के साथ जु़ड़ने लगे क्योंकि यूपी में बीजेपी और कांग्रेस के सिवा यही दो पार्टियां बाकी बचती हैं. कांग्रेस से मुस्लिम नाराज़ हो गए और बीजेपी को लेकर मुस्लिम वोटरों में एक अलग सोच है.
प्रियंका के आने से यूपी में बिखरेंगे मुस्लिम वोटर?
जिस तरह कांग्रेस को अपने कामों से ज्यादा राजनीतिक हालात का शिकार होकर यूपी में ज़मीन गंवानी पड़ी, उसी तरह अब कांग्रेस को बदलते राजनीतिक हालात से मनमाफिक ज़मीन मिल भी रही है. केंद्र में मोदी सरकार और यूपी में योगी सरकार जिस प्रचंड बहुमत से आई, वो जनता की बहुत ज्यादा अपेक्षाओं का बोझ लेकर भी आई. ज़ाहिर है सारी अपेक्षाओं को पूरा करना मुमकिन नहीं. ऐसे में दोनों सरकारों के एंटी इनकमबैंसी फैक्टर का फायदा कांग्रेस को मिल सकता है.
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कांग्रेस से लंबे समय से नाराज़ मुस्लिम वोटर भी शायद अब कांग्रेस पर भरोसा फिर से जताने लगे, क्योंकि इतना तो साफ है कि केंद्र में मोदी सरकार का विकल्प एसपी या बीएसपी की सरकार नहीं हो सकती. ये दोनों पार्टियां सहयोगी हो सकती हैं. सहयोगी भी किस बड़ी पार्टी की, इस सवाल का जवाब भी दो और दो चार जितना आसान है.
2014 के लोकसभा चुनाव, 2015 के दिल्ली विधान सभा चुनाव और 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव ने वोटरों की एक अलग मानसिकता दिखाई है. हर जगह वोटर ने एक ही पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाया. अगर इसी मानसिकता से इस बार लोकसभा के लिए भी वोटिंग हो और वोटर बदलाव के लिए वोट करे तो यूपी में कांग्रेस की लॉटरी लग सकती है.
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यहां मुस्लिम वोट निर्णायक साबित हो सकते हैं. लेकिन मुस्लिम वोटबैंक अब काफी समझदार हो चुका है. समाजवादी पार्टी और बीएसपी से एक झटके में नाता तोड़कर मुस्लिम वोटर कांग्रेस के पाले में चला जाए, ऐसा मुमकिन नहीं लगता. यही वो अहम नुक्ता है, जहां बीजेपी की जीत छिपी है. एसपी-बीएसपी के गठबंधन ने बीजेपी की मुश्किल यकीनन बढ़ाई. मुस्लिम-यादव के समीकरण के साथ अखिलेश और मुस्लिम-अनुसूचित जाति के समीकरण के साथ मायावती एक बड़े वोटबैंक पर काबिज़ नज़र आ रही हैं.
लेकिन अब प्रियंका के आने से कांग्रेस के साथ-साथ जनता में जो 440 वोल्ट का करंट दौड़ा है वो मुस्लिमों को तीन पार्टियों में बांट सकता है. मुस्लिम वोटबैंक का बंटवारा, पीएम मोदी और बीजेपी को फायदा पहुंचा सकता है. कांग्रेस ने पीएम मोदी समेत यूपी के तमाम दिग्गजों को घेरने के लिए ही प्रियंका को पूरे यूपी की जगह सिर्फ पूर्वी यूपी की कमान सौंपी है.
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पश्चिमी यूपी को लेकर माना जा रहा है कि कांग्रेस मुस्लिम कार्ड ही खेलेगी. अगर ऐसा हुआ तो मुस्लिम वोटर कन्फ्यूज होगा और इस कन्फ्यूज़न का सीधा फायदा बीजेपी को मिल सकता है. शायद कांग्रेस को भी इस बात का अहसास होगा. लेकिन इस बार कांग्रेस ने फ्रंटफुट पर खेलते हुए एक ही वक्त में ना सिर्फ केंद्र में वापसी, बल्कि 30 साल बाद यूपी की सत्ता में वापसी का दाव भी चला है प्रियंका के मास्टर कार्ड के जरिये. अब देखना ये है कि मायावती-अखिलेश गठबंधन के साथ फ्रेंडली मैच खेलते हुए कांग्रेस का ये दांव हिट होता है या कांग्रेस हिट विकेट होती है.
Source : News Nation Bureau