महाराष्‍ट्रः नीति, नैतिकता, विचारधारा और जनादेश दरकिनार, बस कुर्सी की दरकार

महाराष्‍ट्र में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी तीनों मिलकर सरकार बनाने जा रहे हैं. तीनों दलों की रीत, नीति और विचारधारा में काफी अंतर है

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Drigraj Madheshia
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महाराष्‍ट्रः नीति, नैतिकता, विचारधारा और जनादेश दरकिनार, बस कुर्सी की दरकार

महाराष्‍ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का रिश्‍ता मजबूत दिख रहा( Photo Credit : न्‍यूज स्‍टेट)

राजनीति ही एक ऐसी नदी है जिसके किनारे शेर और बकरी साथ-साथ पानी पी सकते हैं. न केवल पानी ही पीते हैं बल्‍कि साथ-साथ जंगल में राज भी करते हैं. महाराष्‍ट्र की राजनीति में कुछ ऐसा ही हो रहा है. शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी तीनों मिलकर सरकार बनाने जा रहे हैं. तीनों दलों की रीत, नीति और विचारधारा में काफी अंतर है फिर भी कुर्सी की दरकार ने एक दूसरे का हाथ थामने को मजबूर कर दिया. भारतीय राजनीति में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा कि बेमेल गठबंधन की सरकार बन रही हो. इस तरह की सरकारें पहले भी बनती रही हैं और उनमें से ज्यादातर अपना कार्यकाल पूरा करने में नाकाम भी रही हैं.

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जरा याद कीजिए उन दिनों को जब सोनिया गांधी पहली बार कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं. यही शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा ने उनके विदेशी मूल को लेकर कांग्रेस से अलग हुए. नई पार्टी एनसीपी बना ली . लेकिन सत्‍ता के लिए विदेशी मूल का मुद्दा पीछे छूट गया और एनसीपी ने केंद्र और महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ सरकार में गठबंधन बनाए रखा. इस बार महाराष्‍ट्र चुनाव में कांग्रेस और एनसीपी साथ लड़ीं और अपने धुर विरोधी शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने जा रही है.

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इससे पहले भारत कर्नाटक का नाटक देख चुका है. बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस ने जेडीएस से हाथमिलाकर कुमारस्वामी की सरकार बनाई तो जरूर पर यह सरकार अल्‍पमत में आ गई. बीजेपी ने सत्‍ता पर कब्‍जा कर लिया. कभी एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देखने वाली सपा-बसपा के बीच भी चुनाव बाद गठबंधन हुआ. 1993 के चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के गठबंधन की सरकार बनी थी. इससे पहले 1995 में बीजेपी की मदद से मायावती सीएम बनी थीं.

मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, लेकिन लखनऊ के गेस्ट हाउस कांड के बाद बीएसपी ने समाजवादी पार्टी से समर्थन वापस ले लिया. मुलायम के हाथ से सत्‍ता निकल गई. उसी दिन बीजेपी ने बीएसपी की सरकार को समर्थन दिया और मायावती मुख्यमंत्री बनीं.विचाधारा की ही बात करें तो वाम दल कांग्रेस जब सत्‍ता में रही तो विपक्ष में दिखते थे लेकिन 2004 में कांग्रेस और लेफ्ट ने केंद्र में सत्‍ता के लिए गठबंधन किया. 2016 के बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान भी दोनों पार्टियां गठबंधन में चुनाव लड़ीं. जबकि ये दोनों केरल में एक दूसरे की विरोधी हैं.

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कांग्रेस के विरोध की नींव पर सपा की इमारत खड़ी करने वाले मुलायाम सिंह को भी कांग्रेस का साथ देना पड़ा. 2008 में विश्वास मत प्रस्ताव के दौरान सपा के समर्थन से ही कांग्रेस सरकार बची थी. 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां साथ चुनाव लड़ीं.

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बिहार की राजनीति में कट्टर विरोधीलालू यादव और नीतीश कुमार भी 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़े. इस गठबंधन ने सरकार बनाई जो ज्यादा दिन ना चल सकी और गठबंधन टूट गया. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के प्रबल विरोधी नितीश कुमार आज बीजेपी के ही समर्थन से बिहार के सीएम हैं. यानी यहां भी नीति, नैतिकता और विचारधारा सब सत्‍ता की कुर्सी के पांव तले कुचल गए.

अलग विचारधारा और कार्यशैली के सब्‍जबाग दिखाने वाली आम आदमी पार्टी दिल्‍ली में कांग्रेस और सीएम शीला दीक्षित के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था लेकिन सत्‍ता हासिल की तो उसी कांग्रेस की मदद से. 2013 में जब आम आदमी पार्टी दिल्ली में बहुमत से दूर रह गई तो कांग्रेस का हाथ थाम लिया. दोनों दलों की विचारधारा की गहरी खाई में यह सरकार 49 दिन में ही डूब गई.

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वहीं बात करें तमिलनाडु की तो यहां कांग्रेस राजीव गांधी की हत्या में डीएमके नेता करुणानिधि की भूमिका पर सवाल उठी थी. 2004 में डीएमके केंद्र में कांग्रेस सरकार का हिस्सा बनी. यह गठबंधन 2013 तक चला. 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर ये पार्टियां साथ आ गईं.  आज बंगाल की सीएम ममता बनर्जी भले ही बीजेपी को पानी पी-पीकर कोसतीं हों पर वह पहले बीजेपी नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री रह चुकी हैं. 1997 में कांग्रेस से अलग होकर टीएमसी बनाने के बाद 1999 में उन्होंने भाजपा से गठबंधन किया. ममता बनर्जी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री भी रहीं. वहीं जम्‍मू-कश्‍मीर की बात करें तो यहां भी पीडीपी और बीजेपी के बीच 2015 के विधानसभा चुनावों के बाद बेमेल गठबंधन हुआ और तीन बाद यह गठबंधन चला जो 2018 में टूट हो गया.

वैसे कहने के लिए तो सभी राजनीतिक दलों की अपनी एक विचारधारा है. अपनी एक नीति है, रीत है लेकिन बात जब सत्‍ता की आती है तो नीति, नैतिकता, विचारधारा और जनादेश जब दरकिनार कर बस उन्‍हें कुर्सी की दरकार होती है. हरियाणा में ही देखिए. बीजेपी की खट्टर सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद कर चुनाव लड़ी जेजेपी के लिए वही खट्टर स्‍वीकार्य हैं. इतिहास गवाह है जब-जब बेमेल गठबंधन की सरकारें बनी हैं, अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई हैं. इसकी वजह साफ है, स्‍वार्थ से जुड़े रिश्‍ते मजूबत तो दिखते हैं पर टिकाऊ नहीं होते. अभी महाराष्‍ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का रिश्‍ता मजबूत दिख रहा है.

Source : दृगराज मद्धेशिया

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