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महागठबंधन की धमक से हिलेगी राजनीति या मोदी की आंधी में उड़ जाएगा जातीय समीकरण

महागठबंधन की धमक से राजनीति हिलेगी या फिर धमकी भर रह जाएंगी ये सब मोदी - योगी की रणनीति पर ही तय होगा.

Updated on: 16 Jan 2019, 07:12 PM

नई दिल्ली:

महागठबंधन की धमक से राजनीति हिलेगी या फिर धमकी भर रह जाएंगी ये सब मोदी - योगी की रणनीति पर ही तय होगा. महागठबंधन के बाद एक एक कर तमाम राजनैतिक विश्लेषकों की नजर में बीजपी के नंबर कम होते जा रहे है क्योंकि उनको लग रहा है कि साईकिल पर बैठा हुआ हाथी - कमल और हाथ दोनों के लिए अजेय होगा. मायावती के पैर छूकर आशीर्वाद मांगते हुए तेजस्वी के फोटों से भी ये उम्मीद जग रही है कि ये महागठबंधन काफी ताकतवर बनकर उभरेगा. 2014 में बीजेपी ने जिस तरह से बाकि तमाम विरोधियों को धूल चटा दी थी वो उत्तरप्रदेश की राजनीति में जाति की राजनीति पर मुद्दों या व्यक्तिवाद की आंधी की विजय थी.

एक सवर्ण राजनेता वीपी सिंह की शुरू की गयी मंडल की राजनीति को वापस घुमा कर एक ओबीसी नेता ने जातिवाद के चक्रव्यूह को तोड़ दिया था. लेकिन पांच साल पूरे होते होते राजनीति फिर से जातिवाद के समीकरणों पर लौट आई. उत्तरप्रदेश के मैदानों में सिर्फ इस बात का ही फैसला नहीं होना है कि बीजेपी वापस आएगी या नहीं बल्कि इस बात का निर्णय भी होना है कि योगी के लिए यूपी की जनता ने क्या फैसला किया है.

2014 में उत्तरप्रदेश में बीजेपी की जीत में किसी स्थानीय बीजेपी नेतृत्व का कोई हाथ नहीं था. पार्टी पूरी तरह से मोदी के करिश्में पर आधारित थी और विपक्षी दल पुराने बीजेपी नेतृत्व से जूझने की अपनी रणनीति पर ही अटल थे. लेकिन मोदी ने इलेक्शन को उत्सव में बदल कर पुरानी रणनीतियों को धता बता दिया. जब तक विपक्षी समझ पाते चुनाव साफ हो चुका था. मुलायम सिंह यादव और मायावती दोनों ही अपनी पार्टियों के लोकसभा के चेहरे थे लेकिन जनता ने प्रदेश के बाहर के नेता को सिर आंखों पर बैठाया और लैंडस्लाईड विक्ट्री से नवाज दिया.

मोदी उत्तरप्रदेश के किसी जातीय समीकरण में फिट नहीं थे लेकिन जीत उनके हाथ लगी. बाकि तमाम लोग उनके नाम पर जीत गए बल्कि ऐसे कैंडीडेट भी जीत गए जो विधानसभा चुनावों में अपनी जमानत जप्त करा चुके थे. लेकिन अब 2014 इतिहास में दर्ज हो चुका है और बात अगले सफर की है और इस बात पर शायद सब लोग एक मत हो सकते है कि इस बार मोदी लहर चुनाव का एजेंडा नहीं है. उत्तरप्रदेश वापस अपने जातिय समीकरणों की सांप सीढ़ी की राजनीति में लौट आया है जहां वोटों के प्रतिशत सिर्फ आंकडे़बांजों के लिए है. जनता तो समीकरण बैठा कर सीट जीता देती है. ऐसे में बीजेपी आखिर किस स्थिति में चुनाव लड़ने वाली है. बीजेपी को किस समीकरण से इस प्रदेश से संभावित नुकसान से बचने की उम्मीद है. जातिय समीकरण के खाते में तो बीजेपी कोने में दिख रही है.

2019 में मोदी को एक साथ जरूर मिल रहा है जो उनके लिए जीत का रास्ता आसान भी कर सकता है या उनके विजयी रथ को कीचड़ में धंसा भी सकता है वो है योगी आदित्यनाथ का काम काज. इस वक्त यूपी में योगी आदित्यनाथ के कामकाज पर भी मोदी के लिए वोट पड़ सकता है या फिर दूर जा सकता है. 2014 की सोशल इंजीनियरिंग ने बीजेपी को इस लिए भी जिता दिया था क्योंकि बाकि सब सोशल इंजीनियरिंग से दूर बीजेपी को फाईट में नहीं मान रहे थे, मोदी के बनारस से चुनाव लड़ने की घोषणा के वक्त बहुत से लोगों को उम्मीद थी कि ये दांव उलटा प़ड़ सकता है और स्थानीय बीजेपी नेतृत्व भी उनको वहां पसंद नहीं करेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं उस फैसले ने जैसे पूर्वांचल के तमाम जातीय समीकरणों को ध्वस्त कर दिया और सिर्फ यादव वोटों के ठोस समर्थन के साथ मुस्लिम वोटों की जुगलबंदी से मुलायम सिंह यादव के परिजन और कांग्रेस से सोनिया गांधी और राहुल गांधी गैरबीजेपी या गैर एनडीए सांसद के तौर पर संसद में पहुंच सके थे. लेकिन नोटबंदी या फिर जीएसटी से ज्यादा अपने अस्तित्व को जूझ रहे तमाम दल एक हो उठे है. और पिछले साढ़े चार साल के शासन में मोदी सरकार ऐसा कुछ ठोस नहीं कर पाईं है जो सड़कों पर आम आदमी को दिख रहा हो लिहाजा वो आंधी गुजर चुकी है और चुनाव में चुनौती दिख गई है.

राजनीतिक बयानबाजी से उलट महागठबंधन की मोदी को चुनौती सिर्फ जातिय समीकरण की चुनौती है किसी राजनीतिक विचारधारा की नहीं क्योंकि विचारधारा के नाम पर मोदी विरोध के नायक बने हुए राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस तो इस गठबंधन का हिस्सा ही नहीं है. मोदी से सीधे चुनाव में चोट खा चुके महागठबंधन के दोनों साथी मोदी पर हमले करने के साथ योगी को भी निशाने पर ले रहे है क्योंकि भाषण के उलट यूपी के बाहर दोनों का बहुत ज्यादा बेस नहीं है लिहाजा युद्ध के लिए यूपी का मैदान है यहां योगी के हाथ में कमान है.

बीजेपी आज फिर से उसी मोड़ पर आ गई जैसे 2014 से पहले अनिश्चितता के दौर में, कितनी मिलेगी, कहां-कहां से मिलेगी और दूसरों को क्या हासिल होगा. सब कुछ अंधेरे में. लेकिन इस हालत तक पहुंचने में बीजेपी किसी को दोष नहीं दे सकती है. उत्तर प्रदेश को मोदी से काफी उम्मीदें थी. लेकिन वो उम्मीदें उस तरह से पूरी नहीं हुई. ये सही बात है कि यूपी चुनाव में मुद्दा सिर्फ विकास नहीं था बल्कि राम मंदिर, मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों से घिरी सरकार, जातिवाद और एक के बाद एक होते हुए दंगें भी चुनावी मुद्दा थे. जनता ने अपना फैसला सुनाकर मोदी का विचार सुना और कम से कम विधानसभा चुनाव तक उन्होंने लगातार बीजेपी का साथ दिया यानि मोदी का साथ दिया क्योंकि उस वक्त तक यूपी बीजेपी के पास कोई इस तरह का चेहरा नहीं था जो कि ये दम ठोक कर कह सके कि वो पार्टी को किसी खास सीट से इतने हजार वोटों से जीता या हरा सकता है.

विधानसभा चुनावों के बाद योगी के आने के बाद यूपी में बीजेपी को एक बड़ा चेहरा मिल गया. यूपी में योगी ने मोदी सरकार के एक एजेंडे को यहां बढ़ाया जो केन्द्र में मोदी सरकार शायद किसी वजह से चूकी वो था कि हिंदुवादी एजेंडा पर काम हो न हो लेकिन उस पर बात जरूर हो. राम मंदिर का मामला तो जहां का तहां रहा लेकिन पहले अयोध्या में मनी दीवाली, राम की मूर्तियां, गौवंश वध का निषेध. रोमियो स्क्वायड का गठन ये तमाम ऐसे कदम थे जिन्होंने बीजेपी के कोर वोटर को बात करने का मौका दिया. लेकिन इसके साथ ऐसे वोटर भी थे जिनको एडमिनिस्ट्रेशन में बदलाव की आस थी, ऐसे भी वोटर थे जो विकास की कुछ नई योजनाएं इस प्रदेश में चलते हुए देखना चाहते थे, कुछ ऐसे भी थे जो चाहते थे कि भ्रष्ट्राचार पर कुछ अंकुश लगे, लेकिन यूपी का मौजूदा हाल देखते हुए तो नहीं लगता कि उन वोटर्स के हाथ बहुत कुछ हासिल हुआ है. सड़कों पर दिख जाता है कि सिर्फ नंबर बढ़ाने के लिए एनकाउंटर ( जिनमें से बहुत से अदालत में पहुंच गये है) से अपराध नहीं रूकता है और हर सड़क पर रोज जाम से जूझते लोग आसानी से पुलिस वालों को वसूली करते हुए या फिर कोने में आराम से मोबाईल पर नए नए वीडियों से मनबहलाते हुए देख सकते है.


ऐसे में बदलाव की उम्मीद पर वोट करने वाले वोटर को अपने साथियों को बताने के लिए कुछ भी नहीं है. और बीजेपी की जीत का गणित भी वापस जाति पर ही आकर टिक गया.
बीजेपी को सबसे बड़ा संबल सवर्ण जातियों से नहीं बल्कि गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित वोटों का है, सवर्ण जातियों के एक मुश्त वोट हासिल करने के बाद भी इन दोनों वोट बैंक की जरूरत बीजेपी को होती है. इस महागठबंधन से बीजेपी को तब तक कोई बड़ा नुकसान नहीं हो सकता है जब तक कि अतिपिछड़े और गैर जाटव दलित उसका साथ न छोड़ दे. इस वक्त अपना दल और राजभर के तेवर बीजेपी को मजबूर कर रहे है कि वो अपनी रणनीति में इन्हीं को केन्द्र में रखे.

अब ये योगी पर निर्भर करता है कि वो अपनी रणनीति में इन जातियों को कैसे साधते है, सरकार उनकी है जातियों के गणित में सरकारी योजनाओं का रोल बहुत बड़ा होता है अगर उनको सही से लागू किया जाए. अब कांग्रेस के अलग लड़ने पर बीजेपी को अपनी राह में कुछ रोशनी दिखाई दी है लेकिन पश्चिम उत्तरप्रदेश में जाट वोट बैंक के छिटकने का असर उसके लिए तभी नुकसानदेह होगा जब ये महागठबंधन में शामिल हो जाएं.

आरएलडी के कांग्रेस में जाने पर ( अभी इसकी संभावनाएं काफी कम दिख रही है- अजीत सिंह भी अपनी राजनीतिक संजीवनी हासिल करने के लिए अभी मुस्लिम और दलित वोटों के सहारे है) बीजेपी को बहुत परेशानी नहीं होती नहीं दिख रही है जब तक कि कांग्रेस ऊंची जातियों के वोट अपनी ओर मोड़ने में कामयाब न हो. ऐसे में बीजेपी की हालत फिर से अंधेरे में दौड़ लगाने की है.

(यह लेखक के निजी विचार हैं)