मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार मुश्किल में है. करीब 16 महीने पुरानी सरकार इतिहास का हिस्सा बनकर न रह जाए. सवाल है कि सियासी गलियारों में बहने वाली हर बयार को बवंडर बनने से पहले ही भांप लेने वाले कमलनाथ से ऐसी क्या गलती हो गई कि आज मध्य प्रदेश का सिंहासन उनसे दूर सरकता दिख रहा है. आखिर किस चूक ने कमलनाथ को 'कमल' के सामने कसमसाने पर मजबूर कर दिया.
कमलनाथ की पहली चूक, सिंधिया को प्रदेश अध्यक्ष के सिंहासन से दूर रखना
16 महीने पहले जब कमलनाथ ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली तो ये उम्मीद थी कि वो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी खाली कर संगठन में सिंधिया को सियासत मजबूत करने का मौका देंगे. पर ऐसा हुआ नहीं. पहले तो लोकसभा चुनाव का हवाला देकर कांग्रेस आलाकमान ने मध्य प्रदेश में कमलनाथ को सरकार और संगठन दोनों का सरताज बनाए रखा. फिर आम चुनाव में पार्टी की करारी हार के बावजूद उन्होंने सूबे की सत्ता में एक पावर सेंटर रहने देने के नाम पर सरकार और संगठन दोनों की कमान अपने ही पास रखी. यहां तक कि सिंधिया गुट की ओर से उन्हें पार्टी प्रदेश अध्यक्ष बनाने की पुरजोर मांग और जबरदस्त कोशिशों के बावजूद कमलनाथ नहीं माने, जिससे नाराज सिंधिया उनकी सरकार के लिए सबसे बड़े संकट बन गए.
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कमलनाथ की दूसरी चूक, सिंधिया के लिए राज्यसभा का रास्ता नहीं बनाना
मध्य प्रदेश में तीन राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव होने हैं. इनमें से दो सीटें बीजेपी की हैं और एक कांग्रेस की. विधानसभा चुनाव में जीत के बाद इस बार कांग्रेस का अंगगणित मजबूत था और है और उसके दो सांसद चुने जाने की उम्मीद थी. इनमें से एक सीट के लिए मौजूदा राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह का दावा पहले से है. पर दूसरी सीट पर भी कांग्रेस की जीत पक्की करने के लिए वो चाहते तो सिंधिया का समर्थन कर सकते थे जो सूत्रों के मुताबिक उन्होंने कभी नहीं किया. जब सिंधिया के कथित प्रेशर पॉलिटिक्स के रास्ते कथित ऑपरेशन लोटस ने उनकी सरकार की लुटिया डुबोने का अलार्म बजा दिया, तब भी कमलनाथ बगावत की इस आग का अंदाजा नहीं लगा पाए, या यूं कहें कि पार्टी आलाकमान को इस कथित प्रेशर पॉलिटिक्स के आगे नहीं झुकने को मजबूर कर दिया
कमलनाथ की तीसरी चूक, सिंधिया के बागी संदेशों को नहीं समझना
विधानसभा चुनाव में 15 साल बाद मिली कांग्रेस की जीत का नायक माने जाने वाले सिंधिया लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद कुछ वक्त खामोश जरूर रहे पर उसके बाद उनके बगावती सुर तेज होने लगे थे. किसानों की कर्जमाफी के सच पर सवाल, तबादलों और पोस्टिंग के फैसलों पर सवाल, घोषणापत्र के वायदों की असलियत पर सवाल और इसके लिए सबके साथ सड़क पर उतरने का ऐलान भी तो भी फिर जाहिर है कि सिंधिया के सुलगते सवालों की गूंज अनसुनी कर दी. कमलनाथ ने भी और शायद पार्टी सप्रीमो ने भी. सूत्रों की मानें तो राहुल गांधी के करीबी होने के बावजूद लोकसभा चुनाव में अपनी सीट तक गंवा देने वाले सिंधिया की शिकायत और अदावत को पार्टी ने हाशिये पर रखा.
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कमलनाथ की चौथी चूक, सिंधिया की सियासत समझने में नाकाम रहे
सिंधिया लोकसभा चुनाव जीत कर दिल्ली चले जाते तो शायद कमलनाथ की सरकार इस कश्मकश में कभी न पड़ती. पर गुना में सिंधिया की हार ने ये संभावना भी खत्म कर दी. अब सवाल सिर्फ सियासत का नहीं.. राजघराने की रिवायत का भी था. पर शायद सिंधिया की तरह कमलनाथ को ये अंदाजा नहीं था कि विधानसभा चुनाव में जीत का परचम लहराने के बाद लोकसभा चुनाव में पार्टी का पहिया ऐसे पंक्चर हो जाएगा कि सिंधिया की सियासी गाड़ी दिल्ली जाने के बजाए भोपाल में ही थम जाएगी. सिंधिया की सियासी महत्वकांक्षा कमलनाथ का हाथ छोड़कर कमल के साथ नये सियासी समीकरणों की राह पर निकल पड़ेगी.
Source : Nitu Kumari