फेसबुक खोलते ही एक सहेली का स्टेट्स था, 'लड़कियां चिड़ियां होती हैं, ये चिड़ियां भी चली अपनी मंज़िल।' दरअसल वह अपने ससुराल जाने की बात कर रही थी। पर मेरी समझ में नहीं आया। लड़कियां अगर चिड़ियां होती है तो उनके लिए खुला आसमान होना चाहिए, ना कि ससुराल।
नहीं, मैं शादी या ससुराल के खिलाफ नहीं हूं। पर उसे अपनी मंजिल बताना मेरी समझ से परे है।
लड़कियां आज घर से बाहर निकल कर पढ़ाई कर रही है, नौकरी कर रही हैं, अपनी जिंदगी के जरूरी और बड़े फैसले ले रही हैं। और इन बातों को एक उपलब्धि की तरह हर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर बताना मुझे कई बार गुस्से से भर देता है।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर बात करने के दौरान एक सहेली ने बड़े उत्साह से बताया, देखो- 'कैसे लड़कियां आज के दौर में घर को पीछे छोड़ कर, किराये का घर ढूंढना, खुद के लिए खाना बनाना, काम करना, काम के दौरान की परेशानियों को झेलने के साथ-साथ 'संस्कारों' को भी बनाए रखने की जंग लड़ती रहती हैं।'
लेकिन जब मैं इसे लिखने बैठी तो लगा, अरे यह तो अधूरा सच है। ये सारी जंग लड़कियां ही नहीं घर से बाहर निकलना वाला हर इंसान झेलता है।
क्या सच में लड़कियां पढा़ई, नौकरी या अपने जिंदगी के फैसले लेकर कोई बड़ा काम कर रही है। क्योंकि ये वो अधिकार है जो सभी इंसानों के पास होने चाहिए, जिसमें पुरुष, महिलाएं, ट्रांसजेंडर सभी शामिल है। अगर हमारा देश इन्हें महिलाओं की उपलब्धि गिनाता है तो ये शर्म की बात है।
19 नंवबर को अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस भी होता है। कभी सुना है आपने। कभी सरकार की तरफ से किसी खास आयोजन या स्कीम की घोषणा होती है क्या? महिलाओं के सम्मान की ये एक ऐसी जंग है, जहां उसे पहले ही हारा हुआ घोषित कर दिया गया है। सम्मान के नाम पर कमजोर होने का अहसास दिलाया जाता है।
पढ़ाई और नौकरी के लिए जिस तरह बेटे घर के बाहर जाते है बेटियां भी जाती है। ये उनकी उपलब्धियों का कोई तमगा नहीं है, ये जिंदगी जीने का तरीका है। घर से बाहर तक की जिम्मेदारियों में सब जगह उन्हें बराबर चलना ही चाहिए।
ये सच है कि ये रास्ता आसान नहीं है हमारा समाज भी इसके लिए तैयार नहीं है, पर ये जंग नहीं है। ये हमारी खुद की खड़ी की हुई दीवार है, जिसे तोड़ना है।
सारा समाज पितृसत्ता का शिकार नहीं है। अगर होता तो पुरूष महिलावादी विचार धारा के नहीं होते। दरअसल महिलाओं ने खुद ही पढ़ाई और नौकरी जैसी बातों को अपनी उपलब्धि समझना और समझाना शुरू कर दिया है। और यही उनके विकास में सबसे बड़ा अवरोध है।
ये उपलब्धि नहीं है मूल अधिकार है। जो उन्हे अब भी ज्यादातर सिर्फ अच्छी जगह शादी हो जाए, इसलिए दिया जा रहा है। लाड़-प्यार से पालने वाले मां-बाप के लिए पढ़ी लिखी, कमाऊ लड़की भी बोझ हो जाती है। एक खराब शादी को संभालने की दस ताकीद देने वाला ये समाज आज भी तलाकशुदा महिला का सम्मान नहीं कर पाता।
महिलाओं से जुड़ा हर फैसला, चाहे वह उसके कपड़े हो या खाना बनाने की कला या फिर देर रात दोस्तों के साथ घूमना सब का सीधा कनेक्शन चरित्र से कैसे हो जाता है, ये बात कोई मुझे भी इस अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर समझा दे। फिर ही महिलाओं को किसी तरह का सम्मान देने की बात करना।
महिलाएं, महिला होने के जिस तमगे पर उछल रही है, वह चांद पर पहुंचने से ज्यादा इंसानों में शामिल होने की लड़ाई करे तो अच्छा है। चांद पर बिना जाए ही आप उसे जमीन पर उतार लगाएंगी।
Source : Aditi Singh