हालिया समय में भारत और चीन (Indo-China) ने बिगड़ते आपसी रिश्तों को संभालने और संबंधों की नई कहानी गढ़ने का प्रयास किया है. पिछले साल अप्रैल में चीन के वुहान शहर में भारत के नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग (XI Jinping) के बीच हुई पहली अनौपचारिक शिखर वार्ता में यह साफ़ देखा भी गया है. इस अनौपचारिक वार्ता ने दोनों देशों के बीच नई दोस्ती को जन्म दिया, जिसे 'वुहान स्पिरिट' के नाम से भी जाना जाता है. इस दोस्ती को जारी रखते हुए चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग (XI Jinping) 11 अक्टूबर को भारत दौरे पर आ रहे हैं और तमिलनाडु के पास महाबलीपुरम में दोनों राष्ट्राध्यक्षों की मुलाकात होगी. यह वुहान के बाद दोनों देशों की दूसरी अनौपचारिक शिखर वार्ता है.
माना जा रहा है कि इस दूसरी अनौपचारिक शिखर वार्ता का स्वभाव पहले की तरह ही होगा जिसमें कोई विशिष्ट एजेंडा नहीं है. किसी भी विशिष्ट एजेंडा के न होने से दोनों देशों के शीर्ष नेता क्षेत्रीय और वैश्विक मामलों पर खुलकर बातचीत कर सकते हैं और वार्ता के बाद किसी समझौते या घोषणा का दबाव नहीं होगा. लिहाज़ा नेताओं के पास सीधे संवाद के जरिए उन मुद्दों पर बात करने का मौका होगा जो दोनों देशों के रिश्तों में अकसर मतभेद के मौके देते हैं.
इसके अलावा, दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों के पास द्विपक्षीय संबंधों के लिए एक व्यापक रास्ते की तलाश करने का मौका होगा और दोनों देशों के बीच मतभेदों की सिलवटें मिटाने का मौका भी हासिल होगा. इस दौरान भारत का प्रयास रहेगा कि सीमा विवाद को सुलझाने की दिशा में रफ्तार बढ़ाने के साथ ही द्विपक्षीय व्यापार घाटे की खाई पाटने के लिए नई कवायद शुरू करने पर सहमति बने.
दरअसल, चीन के वुहान शहर में हुए पहली अनौपचारिक शिखर वार्ता की तरह ही यहां भी दोनों नेताओं को एक-दूसरे के साथ अकेले समय बिताने के कई मौके मिलेंगे. उस दौरान प्रधानमंत्री मोदी चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग (XI Jinping) को महाबलीपुरम के समुद्र-तट के मन्दिर (Sour Tepmle), जिसका संबंध 8वीं शताब्दी से है, का दीदार भी करवाएंगे. इस ऐतिहासिक स्थल का भ्रमण करवाकर, प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति शी को याद दिलाएंगे कि न केवल भारत चीन की तरह एक प्राचीन सभ्यता वाला देश है, बल्कि यह भी है कि दोनों ही देश पश्चिम में पैदा हुई औद्योगिक क्रांति से पहले दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्थाएं थीं.
इन दोनों पड़ोसी देशों का हजारों साल पुराना इतिहास है और दोनों देशों की सभ्यताएं सबसे पुरानी है जो पूर्व की सभ्यता के दो स्तंभों को दर्शाती है. दो सबसे बड़े विकासशील देश और उभरती अर्थव्यवस्था होने के नाते भारत और चीन के बीच सहयोग दुनिया के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति शी को जरूर जताना चाहेंगे कि जिस तरह से चीन अपनी वैश्विक पूर्व-प्रतिष्ठा की स्थिति को फिर से हासिल कर रहा है, भारत भी इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है. लेकिन उसके लिए दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग और समन्वय की दरकार है.
95 अरब डॉलर तक पहुंचा व्यापार
देखें तो दोनों देशों के बीच व्यापार 95 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है जो कि जल्द ही 100 अरब डॉलर का आंकड़ा भी छू लेगा. दोनों देश आज की तारीख में उभरते हुए विकासशील देश हैं और दोनों देशों की अर्थव्यवस्था काफी मजबूत है. चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जबकि भारत दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था है. मेरे विचार में जब इतनी बड़ी दो अर्थव्यवस्थाएं मिलती हैं तो व्यापार का आंकड़ा 100 अरब की बजाय 200 अरब डॉलर तक जाना चाहिए. दोनों देश अगर अपने आर्थिक संबंध बढ़ाते हैं, तो यकीनन दोनों देशों को ही फायदा होगा. अगर चीन भारत में निवेश करता है तो यहां के युवाओं को रोजगार मिलेगा और यही मामला चीन के साथ भी होगा.
जैसा कि एक चीनी कहावत है, संशय हमेशा रहेंगे, परंतु हजारों मील की यात्रा भी एक छोटे कदम से शुरू होती है. भविष्य की ओर देखते हुए, एशिया के दोनों बड़े देश बेहतर सृजनात्मक और बहु-आयामी भागीदारी को शक्ल देने में लगे हुए हैं और सहयोग का एक व्यावहारिक मॉडल अपना रहे हैं, जिसमें प्रतिस्पर्धा और सहयोग के दोनों तत्व शामिल हैं.
वैसे भी चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारत को स्किल (कौशल), स्पीड (गति) और स्केल (पैमाना) चाहिए. चीन ने पिछले कई दशकों में जिस तरह से अपनी विकास की गाथा लिखी है, उससे भारत काफी कुछ सीख सकता है. भारत ने भी आईटी, औषधि, अंतरिक्ष आदि कई क्षेत्रों में बढ़िया काम किया है जो चीन के लिए सीखने लायक है. इसमें कोई शक नहीं कि संघर्ष के स्थान पर सहयोग का लाभ अधिक होगा और भारत और चीन दोनों के उत्थान को गति मिलेगी, साथ ही एक संतुलित एशियाई सदी को आकार देने में ऊर्जा मिलेगी. भारत और चीन के नेताओं के लिए अब समय आ गया है कि वे एशियाई सदी की कथनी को करनी में बदलें और विश्व की एक-तिहाई आबादी के सपनों को साकार करें.
हालांकि ‘वुहान शिखर वार्ता’ की यह कहकर आलोचना की गई थी कि इसमें आपसी मतभेदों को दूर करने का कोई ठोस ढांचा बनता नहीं दिख रहा. लेकिन इसमें कुछ हद तक वास्तविकता के अंश भी देखे गए. फिर भी, तथ्य यही है कि दोनों देशों ने आपसी प्रतिस्पर्धा और अविश्वास को काफी कम किया. इसे मानने में कोई गुरेज भी नहीं है कि अनिश्चित अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति ने दोनों देशों को ऐसा करने के लिए प्रेरित किया है. कहा यह भी जा रहा है कि अमेरिका के साथ चीन की रणनीतिक प्रतिस्पर्धा ने चीन को भारत के करीब लाया है. लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि चीन के साथ सैन्य, आर्थिक व कूटनीतिक तनाव कम करके भारत अपने को बहुत ज्यादा फायदा पहुंचा सकता है, और भारत का इसमें ही सबसे ज्यादा भला है.
(लेखक चाइना मीडिया ग्रुप में वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Source : अखिल पाराशर