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General Election 2019: उत्तर प्रदेश महागठबंधन में कांग्रेस का निशाना 3 या 30

राहुल के बाहें चढ़ाने से और किस तरह से आगे की राजनीति को भी प्रभावित करेगी यूपी की कांग्रेसी बिसात.

Updated on: 23 Jan 2019, 02:59 PM

नई दिल्‍ली:

उत्तर प्रदेश महागठबंधन में कांग्रेस का निशाना तीन या तीस. किसका खेल खराब होगा, राहुल के बाहें चढ़ाने से और किस तरह से आगे की राजनीति को भी प्रभावित करेगी यूपी की कांग्रेसी बिसात. महागठबंधन की तमाम मिठाईंयां अब बंट चुकी है. यूपी में बसपा, सपा और सपा के साथ आरएलडी का गठबंधन अब उनके कार्यकर्ताओं की रगों में उत्साह बन कर दौड़ रहा है. लेकिन कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का उत्साह अलग ही दिख रहा है. कांग्रेस के नेताओं से बात हो रही थी और उनके चेहरे पर एक चमक दिख रही थी.

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मैंने पूछा कि गठबंधन में आपको सिर्फ दो सीट है ऐसे में आप कहां है , क्या अकेले लड़ने पर आप साफ नहीं हो जाएंगे. यूपी कांग्रेस से ताल्लुक रखने वाले नेताजी ने जवाब दिया कि ऐसा पहली बार है जब पूरी की पूरी पार्टी एक साथ समझौते के न होने से खुश दिखी है. कांग्रेस में पिछले कुछ समय से उत्तरप्रदेश में गठबंधन की वकालत करने वाले नेताओं की जमात ख़ड़ी हो चुकी थी लेकिन इस बार पहली बार नेता किसी और मूड में दिख रहे और यह कार्यकर्ताओं के मूड़ को दिखा रहा है.

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दरअसल कांग्रेसी कार्यकर्ता को लग रहा है कि इसबार भैय्या जी की लहर चल रही है लिहाजा ऐसे किसी भी गठबंधन को जनता का आशीर्वाद नहीं मिलेगा जिसमें कांग्रेस शामिल न हो. उत्तरप्रदेश में गठबंधन की जीत के दावे कर रहे विपक्षी दलों ने हमेशा की तरह इस बार भी दो सीट यानि राहुल गांधी और सोनिया गांधी के लिए छोड़ दी है और इसको अपनी सदिच्छा बताया है. राजनीति में पानी बहुत तेजी से बहता है और कई बार तो इतनी तेजी से उफनती नदी भी नहीं बहती जिस तरीके से राजनीति का पानी उलट जाता है. ऐसे दर्जनों-सैकड़ों बयान आपको याद आ सकते है जिसमें मुलायम सिंह यादव या और भी कोई नेता ने कहा है कि राहुल और सोनिया की जीत समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार खड़ा न करने के चलते हुए है.

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कई बार तो राहुल की बराबरी सपा के जिलाध्यक्ष के बराबर करने से भी नहीं चूके. लेकिन इस बार ऐसा नहीं दिख रहा है. कांग्रेस को साथ नहीं लिया लेकिन कांग्रेस को सर माथे रखने से चूक भी नहीं रहे है. मोदी को हटाने के यूपी को मंत्र के तौर पर इस्तेमाल करने के बावजूद गठबंधन के ताबीज के तौर पर कांग्रेस का इस्तेमाल करने की फिराक में है. गठबंधन के नेता के साथ बातचीत में कुछ दिन पहले तक उनका साफ तौर मानना था कि कांग्रेस गठबंधन में शामिल होने से ज्यादा गठबंधन के बाहर रहने पर बीजेपी का ज्यादा नुकसान कर सकती है और गठबंधन को फायदा पहुंचा सकती है. बीजेपी को जिस तरह से ओबीसी और दलित वोटर्स के एक बड़े हिस्से में बंटवारे से उम्मीद जगती है उसी तरह से ये बात गठबंधन के नेता भी समझते है कि बीजेपी को एक मुश्त सवर्ण वोट उनके गठबंधन को काफी नुकसान पहुंचा सकते है और पहले कई बार इस्तेमाल की गई सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति से उलट इस बार पूरी तरह से ओबीसी और दलितों के साथ बस मुस्लिम वोटर्स को जोड़ने की रणनीति पर अमल कर रहे हैं.

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गठबंधन के रणनीतिकार ये भी मानते है कि इस बार गठबंधन को बेहद कम संख्या में सवर्णों के वोट हासिल होंगे और अगड़े पूरी तरह से बीजेपी के पीछे गोलबंद हो सकते है ( ये बात गठबंधन के तहत किसी सीट पर सर्वण जाति के उम्मीदवार के अलावा बाकि सीटों जातिगत वोटिंग पैटर्न के आधार पर है) ऐसे में कांग्रेस अगड़ों के वोट में हिस्सेदारी करने में कामयाबी होती है तो ये बीजेपी के लिए बड़ी चोट होगी क्योंकि बीजेपी के इस ठोस समर्थन में एक छोटी सी भी दरार हो तो उससे महागठबंधन को काफी मजबूती मिल सकती है. लेकिन अगर ये दरार खुद बीजेपी विरोधी दलों के मतदाताओं में दिखाई दी तो इसका फायदा बीजेपी को मिल सकता है.

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अब कांग्रेस का जो रूख दिख रहा है उसमें वो तीस सीटों पर काफी मजबूती से लड़ने की बात कर रही है और बाकि सीटों पर वह गठबंधन के साथ एक परोक्ष साझेदारी कर आसान उम्मीदवार उतारने की कवायद में है. लेकिन क्या ये रणनीति काम कर सकती है कि पूरे प्रदेश में आग उगलते हुए भाषणों के बीच मतदाताओं में इतना संयम और समझदारी दिखाई दे कि वो ऊपर और नीचे दोनों की परतों से सच निकाल कर बीजेपी को हराने वाले गठबंधन या कांग्रेस के उम्मीदवार को वोट करे. इतना आसान नहीं है लेकिन इससे नीचे कांग्रेस भी लड़ने को तैयार नहीं है क्योंकि इस वक्त देश में जिस मोदी विरोधी लहर को कांग्रेस के नेता सूंघ रहे है उसमें उत्तरप्रदेश की खुशबू मिलना जरूरी है , 2009 में यूपीए को वापस सत्ता में लाने में यूपी के 21 कांग्रेसी सांसदों की एक बड़ी भूमिका थी ऐसे में बड़े दिल के लिए कांग्रेस उत्तरप्रदेश को विपक्षियों के लिए छोड़ दे ये आसान नहीं दिखता.

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2004 में भी कांग्रेस को 9 सीट हासिल हुई थी ऐसे में महज दो सीटों पर लड़ना और बाकि सीटों को बड़े हित में दान करना संभव नहीं दिखता है. इस दरियादिली के लिए कांग्रेस को दिल्ली की सत्ता हासिल होने का पूरा भरोसा होना और साथी गठबंधन दलों की सरकार के प्रति सदाशयदता का भी भरोसा होना चाहिे. लेकिन कांग्रेस की दिक्कत है कि दोनों दलों से ऐसे भरोसे का कोई आधार उसके पास नहीं है. उत्तर प्रदेश देश की सत्ता का किला है भले गठबंधन के दल सरकार न बना सके लेकिन सरकार की मजबूती और कमजोरी का निर्धारण तो कर ही देते है. ऐसे में लगता नहीं है कि कांग्रेस किसी दिखावटी लड़ाई की तैयारी में है. कांग्रेस इस बार पूरी ताकत के साथ लड़ने के कोशिश करेंगी अगर कोई समझौता साफ तौर पर नहीं दिखता.

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कांग्रेसी कार्यकर्ता भी अब राहुल को प्रधानमंत्री पद के सबसे उपयुक्त उम्मीदवार के तौर पर देखता है ऐसे में यूपी का वॉक ओवर उसके मनोबल को तोड़ देगा और कार्यकर्ताओं का यही दबाव राहुल तो आगे लड़ने के लिए मजबूर कर देगा. लेकिन राजनीति में सामने दिख रही चींजे ही आखिरी स्वरूप ग्रहण नहीं करती है बल्कि कुछ न कुछ अनहोनी उसका रास्ता बनाती है . ऐसे में अभी यूपी में गठबंधन की खुशियों के बीच कांग्रेस की फांस दिख रही है हांलाकि कुएं पर बिछे पलंग पर एक खूबसूरत सी चादर थके हुए राहगीरों को बहुत शिद्दत से खींचती है.

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