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किसानों का आंदोलन क्या अब समाप्त हो गया, ये आसान मौके जो किसान भुना नहीं पाए

यह अलग बात है कि कुछ किसान नेता और संगठन अभी भी आंदोलन को जारी रखने की बात कह रहे हैं, लेकिन लाल किले पर हुए राष्ट्र के अपमान के बाद सरकार किसी प्रकार की ढील देने के मूड में नहीं दिख रही है.

Updated on: 28 Jan 2021, 07:14 PM

नई दिल्ली:

किसान आंदोलन अब अपनी समाप्ति की ओर चल पड़ा है. यह सवाल अब सभी के मनमश्तिष्क में है. करीब दो महीनों से दिल्ली की सरहद पर डेरा जमाए दिल्ली वालों को हल्कान किए कुछ किसान संगठनों के नेता और किसानों का आंदोलन अब समाप्त हो रहा है. यह अलग बात है कि कुछ किसान नेता और संगठन अभी भी आंदोलन को जारी रखने की बात कह रहे हैं, लेकिन लाल किले पर हुए राष्ट्र के अपमान के बाद सरकार किसी प्रकार की ढील देने के मूड में नहीं दिख रही है. इस बीच यह बात गौरतलब है कि सरकार ने किसानों की मांगों को मानने के लिए कुछ नर्मी भी दिखाई लेकिन अंतत: ऐसा हुआ नहीं है. कारण सरकार के झुकने को किसानों ने सरकार की कमजोरी समझा और कुछ तथाकथित लिबरल और विपक्षी दलों के बहकावे में आकर किसान संगठन जैसे सरकार को घुटने पर लाने की जिद पर अड़ गए. अब सरकार का रुख साफ कि आंदोलन के नाम न अलगाववाद को बरदाश्त किया जाएगा न ही आंदोलन के नाम पर लोगों को परेशान होने दिया जाएगा. 

गौरतलब है कि 26 जनवरी को ही राजपथ पर ट्रैक्टर परेड निकालने की जिद पर अड़े किसानों पर सरकार ने हामी भरकर जो भूल की उसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ा. पूरी दुनिया में सशक्त देश की कमजोरी जैसे देशा का मज़ाक बन गई. जिस प्रकार दिल्ली पुलिस के जवानों पर किसानों से लाठी भांजी वह अफसोसजनक था. ऐसे मंजर इतिहास बन गए और खौफनाक यादें अब हमेशा नरेंद्र मोदी की इस सरकार को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय हुए प्लेन हाईजैक की घटना की तरह याद आते रहेंगे. यह बात अलहदा है कि प्लेन हाईजैक होने के बाद सभी दलों ने मिलकर यह निर्णय लिया था  कि आतंकियों को छोड़कर देश के आम नागरिकों की जान के बचाया जाए लेकिन आज तक विपक्षी दल वाजपेयी सरकार के उस फैसले को सरकार की कमजोरी के तौर पर याद करते रहेंगे. 

यह बात भी उतनी ही सच्ची है कि नरेंद्र मोदी 2002 के दंगों के कथित दाग को धोने के प्रयासों में इतना लोकतांत्रिक हो जाएंगे कि देश के सम्मान के साथ चंद किसान मजाक कर निकल गए. अब यह याद उन्हें और देशवासियों को हमेशा कचोटती रहेगी और साथ ही विपक्षी दलों को एक कमजोर सरकार कहने का मौका जरूर दे देगी. भविष्य में ये शब्द सुनने के लिए सरकार को तैयार रहना होगा. 

जहां तक बात किसानों की है तो उनके पास भी कई मौके थे जब वे सरकार के सामने अपनी बातों को मनवाकर एक शांतिपूर्ण हल कर लेते लेकिन ऐसे तीन मौकों को उन्होंने अपने हाथों से जाने दिया और शायद मीडिया की कवरेज ने उन्होंने इतना उत्साहित कर दिया कि वे अन्ना की तरह एक क्रांति के जनक बन जाएंगे. लेकिन वे भूल गए कि अन्ना जब आंदोलन के लिए बैठे थे तब वे पूरे देश के लिए भ्रष्टाचार से लड़ाई के खिलाफ एक अलख के रूप में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन समाज के एक वर्ग का नेतृत्व कर रहे हैं. इतना ही नहीं इस आंदोलन में करोड़ों किसानों के देश के कुछ हजार लोग सड़कों पर उतरे. यह अलग बात है कि इन राज्यों के किसानों के सड़क पर उतरने की वजह भी अब तक सभी जान गए हैं. 

किसानों की सबसे पहली मांग थी कि सरकार एमएसपी पर लिखित गारंटी दे. यह अलग बात है कि सरकार ने एमएसपी को यथावत रखा था, लेकिन कुछ लोग ने किसानों को निजी फायदों के लिए भ्रमित किया और आंदोलन तक ले आए. 

सरकार ने पहली बार किसानों की बात तब मानी जब सरकार की ओर से कहा गया कि सरकार संशोधन के लिए तैयार है. किसानों के पास मौका था कि वह अपनी बात कानून में कमियों के गिनाकर और उसे अपने हिसाब से बदलवाकर एक राह चुन लेते, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 

किसानों के पास दूसरा मौका तक आया जब मामले में सुप्रीम कोर्ट की एंट्री हुई. किसान साफ कह रहे थे कि सरकार पर उन्हें भरोसा नहीं है लेकिन वे सुप्रीम कोर्ट की बात मान जाते और समिति के सामने अपने सारे सवाल और शंकाओँ को व्यक्त करते और समाधान लेते. कोर्ट ने समिति बनाई लेकिन किसानों को समिति पसंद नहीं आई तो कुछ ने सुप्रीम कोर्ट को भी दरकिनार कर दिया. यह दीगर बात है कि कोर्ट ने साफ कहा कि समिति के सदस्य निर्णय नहीं देंगे. निर्णय कोर्ट ही देगा लेकिन किसानों को संवैधानिक संस्था सुप्रीम कोर्ट पर भी विश्वास नहीं था.

इसके बाद सरकार की और से एक और बड़ा कदम किसानों के सामने प्रस्तुत किया गया. सरकार ने प्रस्ताव में साफ कहा कि अगले डेढ़ से दो साल तक कानून लागू नहीं किया जाएगा और इस बीच सभी की शंकाओं का समाधान हो जाएगा. लेकिन किसानों की ओर से यह भी मौका हाथ से जाने दिया गया. किसान एक बार फिर कानूनों को रद्द करने की अपनी मांग पर अड़े रहे. 

अब सरकार को एक बार फिर सख्ती के बाद ऐसा बातचीत का रास्ता निकालना चाहिए जिससे किसानों के वास्तविक मुद्दों को समझा जा सके और सुलझाया जा सके.