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दावों के उलट है जम्मू कश्मीर की हकीकत, कब बदलेंगे हालात?

केंद्र सरकार कश्मीर में स्थिति नियंत्रण में और हालात सामान्य होने का जोर-शोर से दावा करते हुए कश्मीरी पंडितों (हिंदुओं) को घाटी में अपने घरों में वापस लौट जाने के लिए बार-बार प्रेरित कर रही है लेकिन उनके जान-माल की सुरक्षा की कौन सी गारंटी है?

Updated on: 11 Nov 2021, 11:48 AM

श्रीनगर:

केंद्र सरकार कश्मीर में स्थिति नियंत्रण में और हालात सामान्य होने का जोर-शोर से दावा करते हुए कश्मीरी पंडितों (हिंदुओं) को घाटी में अपने घरों में वापस लौट जाने के लिए बार-बार प्रेरित कर रही है लेकिन उनके जान-माल की सुरक्षा की कौन सी गारंटी है? अपने घर कौन नहीं. लौटना चाहता लेकिन वहां मरने के लिए कौन जाएगा? 1990 में कश्मीर घाटी में आतंकियों का वर्चस्व था. उन्होंने हिंदुओं का कत्लेआम किया और लाखों हिंदुओं को यह कहकर खदेड़ा कि अपनी खवातीन (महिलाएं) यहां छोड़ जाओ और यहां से तुरंत निकल भागो. तब हिंदू समुदाय के जज, रेडियो अनाउंसर, प्राध्यापक, व्यापारी व सामाजिक कार्यकर्ता आदि की हत्या कर दी गई थी और अत्यंत दहशत भरा माहौल था. ये कश्मीरी पंडित जैसे-तैसे लुट-पिटकर व जान बचाकर निकले और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में रहने तथा भारत के अन्य ठिकानों पर जाने को बाध्य हुए. कश्मीर में उनके पड़ोसियों ने भी उनसे आंखें फेर ली थीं. घाटी से एक-एक हिंदू को बाहर निकालकर उस क्षेत्र में केवल मुस्लिम आबादी रखने की पाकिस्तानी व आतंकवादी चाल इसके पीछे थी. 

मोदी सरकार की पहल जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 और धारा 35 (ए) को समाप्त करने का ऐतिहासिक कार्य मोदी सरकार ने किया. कश्मीर को भारत की मुख्यधारा में लाने के लिए यह आवश्यक था लेकिन कुछ माह की सख्ती के बाद जब हालात सामान्य होते दिखे, तभी आतंकी सक्रियता दिखाने लगे. कश्मीर घाटी में सिख महिला प्राचार्य, हिंदू शिक्षक तथा हिंदू केमिस्ट की चुन-चुनकर हत्या की गई. अन्य राज्यों से कश्मीर में मजदूरी करने गए श्रमिकों को भी आतंकियों ने निशाना बनाया. एक कश्मीरी पंडित डॉ. संदीप मावा की दूकान में काम करनेवाले सेल्समैन की भी हत्या की गई. ऐसे में कोई भी वहां सुरक्षित नहीं है..

मानवाधिकार संगठनों का मौन कश्मीर से लाखों हिंदू खदेड़े गए लेकिन मानवाधिकार संगठनों ने चूं तक नहीं की. खाते-पीते घरों के लोग शरणार्थी बनकर रह गए लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करनेवालों ने इसकी पूरी तरह अनदेखी कर दी. मानवाधिकार की लंबी-चौड़ी बातें करने वालों के मुंह में दही जम गया था. कश्मीर को लेकर केंद्र का रवैया काफी विचित्र था. वीपी सिंह की सरकार बने 4 दिन ही हुए थे कि उनके गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया के अपहरण की नौटंकी रची गई. रूबिया को छुड़ाने के नाम पर 4 खूंखार आतंकवादी रिहा कर दिए गए, जिनमें मकबूल बट भी था. यही आतंकी 1999 में इंडियन एयरलाइंस के उस विमान अपहरण में शामिल था जिसे कंधार ले जाया गया था. चाहे फारूक और उमर अब्दुल्ला हों या महबूबा मुफ्ती, किसी के मुंह से कश्मीरी हिंदुओं के बारे में सहानुभूति का एक बोल नहीं निकला. 

हिंदू कर्मचारी करें भी क्या 
हिंदू कर्मचारियों की दिक्कत यह है कि उन्हें कश्मीर में ड्यूटी ज्वाइन करने का आदेश है लेकिन वहां आतंकी उनके खून के प्यासे बने हुए हैं. सुरक्षा का भरोसा नहीं होने से वे कैसे घाटी में रहने जाएं! होना तो यह चाहिए कि रिटायर्ड फौजियों को शस्त्रास्त्र देकर कश्मीर घाटी में बसा दिया जाए जो आतंकी धमकी से निपट सकते हैं. टारगेट किलिंग को हर कीमत पर रोका जाना और लोगों में विश्वास पैदा करना जरूरी है. आतंकियों और उन्हें पनाह देने वालों पर सख्ती जरूरी है. पाकिस्तान की हर साजिश विफल करनी होगी. माहौल पूरी तरह सुरक्षित होने पर ही कश्मीरी पंडितों को घाटी में भेजा जाए वरना निहत्थे रहकर वे अपनी जान गंवा बैठेंगे. यह अच्छी बात है कि टारगेट किलिंग पर केंद्र एक्शन ले रहा है और कश्मीर घाटी में 7,500 अतिरिक्त जवान तैनात किए जा रहे हैं.