Surrogacy: 'किराये की कोख' के व्यवसाय पर लगेगी रोक

सरोगेसी अर्थात् 'किराये की कोख'. कुछ लोग इसे वरदान मानते हैं, तो कुछ लोग मातृत्व का व्यापार. यानी बच्चे की मां कोई और होगी और वह नौ महीने किसी और की कोख में गुजारेगा.

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Drigraj Madheshia
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Surrogacy: 'किराये की कोख' के व्यवसाय पर लगेगी रोक

प्रतिकात्‍मक चित्र

संसद के शीतकालीन सत्र में लोकसभा में सरोगेसी के व्यवसायीकरण पर रोक लगाने से संबंधित विधेयक पास कर दिया गया है. सरोगेसी अर्थात् 'किराये की कोख'. कुछ लोग इसे वरदान मानते हैं, तो कुछ लोग मातृत्व का व्यापार. यानी बच्चे की मां कोई और होगी और वह नौ महीने किसी और की कोख में गुजारेगा. गौरतलब है कि दो साल पहले भी इस मामले की गूंज सुनाई दी थी. किराये की कोख के बढ़ते व्यवसाय पर लगाम कसने के लिए साल 2016 में केंद्रीय कैबिनेट ने सरोगेसी बिल को मंजूरी दी थी. इसके तहत सरोगेसी व्यावसायिक इस्तेमाल को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने का प्रावधान रखा गया था. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की अध्यक्षता में गठित मंत्री समूह की सिफारिशों के आधार पर ही यह बिल तैयार किया गया था, जिसमें केवल नि:संतान जोड़ों को ही इस तकनीक को अपनाने की अनुमति दी गई थी.

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दरअसल, कई बड़ी हस्तियों ने बच्चे होने के बावजूद सरोगेसी तकनीक का उपयोग किया. इसमें शाहरुख खान और आमिर खान प्रमुख रहे. हद तो तब हो गई जब डायरेक्टर करण जौहर और अभिनेता तुषार कपूर को अविवाहित पिता बनने इच्छा जागी और उन्होंने भी किसी की परवाह किए बिना सरोगेसी को शौकिया तौर पर इस्तेमाल किया.

कई मामले ऐसे भी देखे गए हैं, जिनमें विदेशी या फिर प्रवासी भारतीय भारत आते हैं और गरीब व आदिवासी महिलाओं को पैसों का लालच देकर उनसे किराये की कोख खरीदते हैं. इसके बाद जब यह बच्चा दुनिया में आ जाता है, तो वह इसे अपनाने से मना कर देते हैं या फिर महिला को छोड़कर रफ्फूचक्कर हो जाते हैं. इसके बाद उन बेबस महिलाओं के पास बच्चे को पालने या फिर मारने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है. भारत में भी कई ऐसे विवादित मामले देखने को मिले हैं, जिसमें बच्चा अगर लड़की है या फिर दिव्यांग है तो उसे भी लेने से मना कर दिया जाता है, जिसमें उस महिला का कोई दोष नहीं होता है, जो पूरे नौ महीने तक उस भ्रूण को अपने खून से सींचती है.

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इन विसंगतियों को देखते हुए केंद्र सरकार ने नए कानून का जो प्रस्ताव तैयार किया है, उसमें कुछ शर्तों को भी शामिल किया है, जिसके तहत सिर्फ भारतीय ही सरोगेसी का लाभ उठा सकेंगे. विदेशी, प्रवासी भारतीय या फिर अन्य भारतीय जो यहां का नागरिक होने का दावा करता है, उसे इस तकनीकी से दूर रखा जाएगा. इसमें अविवाहित पुरुष या महिला, सिंगल, लिव इन में रह रहा जोड़ा, समलैंगिक जोड़े और बच्चे को गोद लेने वाले जोड़े को भी सरोगेसी के लाभ से दूर रखने का प्रावधान रखा गया है.

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इसमें परिवार के सदस्यों को कोख किराये पर लेने की छूट दी गई है. लेकिन इसका लाभ कौन—कौन ले सकेंगे यह स्पष्ट नहीं किया गया है. स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड्डा ने कहा कि एक बार कानून बनने के बाद इसके लागू करने के लिए नियमों और दिशानिर्देशों को बनाते समय इसे साफ किया जाएगा. विधेयक में विदेशी जोड़ों के लिए भारतीय महिलाओं की कोख किराये पर लेने को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है. यही नहीं शादीशुदा जोड़े भी शादी के पांच साल बाद ही संतान सुख की प्राप्ति के लिए इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. वहीं पुरुषों के लिए 55 साल और महिलाओं के लिए 50 साल की अधिकतम सीमा भी तय कर दी गई है.

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खैर, इससे पहले भी किराये की कोख के लिए नजदीकी रिश्तेदार मौसी, मामी और बुआ को ही शामिल किया गया है. इसके अलावा शादीशुदा दंपत्ति को इसके लिए आवेदन देने से पहले चिकित्सीय जांच अनिवार्य की गई थी कि अगर वह मां—बाप बनने में सक्षम नहीं है, तभी उन्हें इस तकनीक को उपयोग में लाने की मंजूरी दी जाएगी.

क्या कभी किसी ने यह जानने की कोशिश की है कि आखिर क्यों ये माताएं अपनी कोख किराये पर देने को मजबूर होती हैं? इसका जवाब शायद सभी जानते होंगे. गरीबी. जी हां, आज हम आजाद भारत में रहने के बावजूद कई ऐसी समस्याओं से घिरे हुए हैं, क्योंकि यहां गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर.

आज की बिजी लाइफ और स्टेटस के चलते कई नामी—गिरामी हस्तियां अपना समय और उनकी पत्नियां अपने फीगर को खराब होने से बचाने के लिए इसका उपयोग कर रही हैं. उनकी मानसिकता बन गई है कि वह पैसों के बल पर मातृत्व का सुख भी खरीद सकती हैं. पर यह सोच बहुत ही छोटी है, क्योंकि हमारे वेदों—पुराणों में यही लिखा गया है कि स्त्री तभी पूर्ण मानी जाती है, जब वह अपनी कोख में नौ माह तक एक बच्चे को धारण करती है, यह सुख भोगने के लिए उन्हें ईश्वर का ऋृणी होना चाहिए, लेकिन समाज की खोखली और दिखावे की मानसिकता ने लोगों को आज केवल रोबोट की तरह बना दिया है, जो केवल मशीन की तरह काम तो करता है, लेकिन उसमें भावनात्मकता और प्यार नाम की कोई चीज नहीं होती है.

बहरहाल, जरूरत के नाम पर शुरू हुई सरोगेसी को आज लोग शौकिया तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं, जो कि बेहद शर्मनाक बात है. नए-नए अमीरों के शौक भी नए होते हैं. माना यह जाता है कि मातृत्व एक पीड़ादायक प्रक्रिया है. बच्चे को नौ महीने तक कोख में रखना और फिर प्रसव की पीड़ा. लेकिन इस पीड़ा के बाद जो सुख मिलता है, वह दिव्य होता है. बच्चे को जन्म देने के बाद नारी सृजन की प्रक्रिया का अंग बन जाती है. लेकिन नव धनाढ्य महिलाएं इस प्रक्रिया से बचने के लिए किराए की कोख का इस्तेमाल करने लगी हैं. उनका यह शगल गरीबों की शामत बन गया है. गरीब महिलाएं उनके बच्चे को नौ महीने तक अपनी कोख में रखती हैं और जन्म देने के बाद उनका बच्चा उन्हें सौंप देती हैं. इस तरह वह अपना पेट भरने के लिए वह उस ममता को भी बेच देती हैं, जो नौ महीने में उनके भीतर पैदा होती है. कोख तो खैर वे बेचती ही हैं. इस लिहाज से देखें तो सरोगेसी पर तो बहुत पहले रोक लग जानी चाहिए थी, लेकिन जब लगी, तब सही. उम्मीद है कि राज्यसभा में भी यह बिल पास हो जाएगा. राजनीतिक दलों को यह जरूरी काम कर ही देना चाहिए.

ऐसे में किराये की कोख से पैदा होने वाले बच्चे को मां-बाप के जैविक बच्चे के समान हर कानूनी अधिकार प्राप्त हो सकेंगे. बच्चे के होने पर उसे सेरोगेट मदर के पास नहीं छोड़ा जा सकेगा. वहीं यह तकनीकी सुविधा केवल उन्हीं जरूरतमंदों को ही मिलेगी न कि पहले से ही दो-दो बच्चे होने के बावजूद शौकिया तौर पर इसे आजमाने वालों को. इससे इस व्यवसाय पर लगाम लगाने में आसानी होगी. क्योंकि जिसके पास पैसा होता है, वह इसका लाभ उठा सकता है और जो संतान के लिए तरस रहा है, वह पैसों के अभाव में इससे वंचित रह जाता है. (ये लेखक के अपने निजी विचार हैं)

Source : SUNITA MISHRA

commercialization of surrogacy winter session Bill passed Lok Sabha
      
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