हिंदू होना ही लड़कियों के लिए बन गया गुनाह, इंसानियत होती रही शर्मसार
कुमिल्ला जिला की दाउकान्दी उप जिला सवाहन गांव में 1979 की 8 फरवरी को सुबह हिंदु ऋषि संप्रदाय पर करीब चार सौ लोगों ने अचानक हमला किया.
नई दिल्ली:
झूठ को सच बनाने में लगे हो कॉमरेड़. भेड़ को भेड़िया और भेड़ियों के भेड़ बनाने के खेल में करोड़ों लोगों को दांव पर लगाते हो. तीन इस्लामिक देशों में इस्लाम के अनुयायी बाकि अल्पसंख्यकों की तरह प्रताड़ित नहीं हो सकते हैं.
"कुमिल्ला जिला की दाउकान्दी उप जिला सवाहन गांव में 1979 की 8 फरवरी को सुबह हिंदु ऋषि संप्रदाय पर करीब चार सौ लोगों ने अचानक हमला किया. इन लोगों ने चिल्लाकर घोषणा की कि सरकार द्वारा देश में इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म घोषित किया गया है, इसलिए इस्लामी देश में रहने के लिए सबको मुसलमान बनना पड़ेगा. उन लोगों ने प्रत्येक घर में लूटपाट की और आग लगा दी. मंदिरों को धूल में मिलाकर कई लोगों को पकड़ कर ले गए, जिनकी अब तक कोई खबर नहीं मिली. लड़कियों के साथ खुलेआम बलात्कार किया गया."
"सोलह जून को फिरोजपुर जिले में स्वरूपकाठी उप जिला के आठधर गांव में दर-बारह पुलिस वालों ने गौरांग मंडल, नगेन्द्र मंडल, अमूल्य मंडल, सुबोध मंडल, सुधीर मंडल, धीरेन्द्र नाथ मंडल, जहर देऊरी समेत पन्द्रह-सोलह हिंदुओं को बंदी बनाया. गौरांग मंडल के आंगन में लाकर उनकी पिटाई शुरू की तो गौरांग मंडल की पत्नी ने उसे एक कमरे में ले जाकर सामूहिक बलात्कार किया. अन्य महिलाओं ने जब उन्हें रोकना चाहा तब उन्हें भी लांछित होना पड़ा. सनातन मंडल की लड़की को भी जबरदस्ती पकड़कर उन लोगों ने बलात्कार किया. इस घटना के बाद रीना का अपहरण हो गया और तब से आज तक वह लापता है."
"गोपालगंज जिले में मकसूदपुर उपजिला के उजानि संघ के अध्यक्ष खायेर मुल्ला की मृत्यु को मुद्दा बनाकर पुररूत्थानवादियों कट्टरपंथियों को और पुलिस ने उस इलाके के हिंदुओं पर अत्याचार किया. पुलिस ने वासुदेवपुर गांव के शिबू की पत्नी और महाढ़ोली गांव की मुमारी अंजिल विश्वास के साथ बलात्कार किया गया."
"स्वरूपकाठी उपजिला के पूर्व जलाबाड़ी गांव के सुधांशु कुमार हालदार की चौदह वर्षीय लड़की शिउली को मामा के घर जाते समय रास्ते में पकड़कर रूस्तम अली नाम के एक आदमी ने उसके साथ बलात्कार किया. शिऊली रास्ते में बेहोश होकर पड़ी थी. सुधांशु हालदार ने जब वहां के जाने-माने लोगों से इसकी फरियाद की तो उससे कहा गया कि यह सब अगर बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इस देश को छोड़ना पड़ेगा."
ये 183 पेज की एक किताब के महज दो पन्नों की कहानी है, और अगर किसी का मानवता में जरा सा भी विश्वास है तो वो इन दो पेज को पढ़ कर ही कांप कर रह जाएंगा और शायद ही उसकी नजर अपने बच्चों से अलग हो पाएं. लेकिन ये कहानी सिर्फ इतनी सी नहीं है. इन दो पेज के लोगों की तादाद महज सैंकड़ों में हो सकती है लेकिन बांग्लादेश से चल कर आने वालों की तादाद करोड़ों में हैं यानि उनके पास ऐसी करोड़ों कहानियां है. जी हां आपके पास शायद इतना पढ़ने के लिए जीवन न हो जितना उन लोगों ने भोगा है. अगर आप इन कहानियों को सरसरी तौर पर भी देखते है तो इस बात का अहसास कर लेते है कि अल्पसंख्यकों की लड़कियों से बलात्कार इस्लामिक कट्टरपंथियों का सबसे प्रमुख हथियार है उनको धर्मांतरित करने या देश छुड़ाने के लिए.
अपनी बेटियों और पत्नियों यहां तक बुजुर्ग औरतों को इस पाशविकता से गुजरते देखने वाले इन शरणार्थियों की भी लाखों कहानियां हो सकती है. लेकिन ये कहानियां इस वक्त हमारे ही देश की आंख से ओझल है। और बहस दूसरी और मोड़ दी गई. ये कहानियां सिर्फ बांग्लादेश की है वो बांग्लादेश जिसकों बनाने के लिए सेक्युलर हिंदुस्तान ने अपनी कितनी कुर्बानियां दी है और जिसके बनने पर इस देश में काफी वामपंथियों और उन तमाम लोगों ने जो सेक्युलरजिज्म को बहुसंख्यकों को उत्पीड़ित करने का हथियार बनाएं हुए है उन लोगों ने उत्साहित होकर कहा था ये कि धर्म के आधार पर देश बनाने का आईडिया फेल आईडिया है और बांग्लादेश एक धर्मनिरपेक्ष देश है. ये वही बांग्लादेश है जो शायद ही कभी बच पाता या बन पाता अगर टिक्काखान के शैतानी पंजों से उसको भारतीय फौंज आजाद न करती, लेकिन बदले में क्या मिला है. इस्लामी कट्टरपंथियों के अत्याचारों की शिकार अल्पसंख्यक जनता शैतानी अत्याचारों की लाखों कहानियों के साथ.
पाकिस्तान और अफगानिस्तान की बात करने से ऊंगलियां कांप सकती है क्योंकि वो दोनों ही कट्टर इस्लामिक देश है. इस्लाम की तमाम रवायतों का वहां पालन होता है उन देशों के संविधान में लिखित कायदों के मुताबिक. ऐसे देशों में आप क्या उम्मीद करते है कि वहां कितनी दयामय तरीके से अल्पसंख्यकों को रखा होगा. अल्पसंख्यको को वो कपड़े पहनने की आजादी नहीं है जो बहुसंख्यक यानि इस्लामिक लोग पहनते है. दिल्ली में ऐसे कई कैंप है जहां जाकर खुद से ये देखा जा सकता है उनसे सुना जा सकता है कि बेटियों वाले घर की हालत पाकिस्तान में अफगानिस्तान में या फिर बांग्लादेश में क्या है. उन बेटियों से पूछा जा सकता है कि राह चलते हुए ही नहीं घऱ में भी वो कट्टरपंथियों की नज़र से नहीं बचती, रोज होने वाले अपहरण की कहानी वही के अखबारों में देखी जा सकती है अगर बच्चियों के मां-बाप ने विऱोध किया तो ईशनिंदा का चाबुक उनके पास है.
लेकिन ये कहानियां इस देश में बिलकुल नहीं सुनाई गयी क्योंकिये कहा गया कि इससे भारत के अल्पसंख्यक नाराज हो सकते है. उनकी भावना को ठेस लग सकती है. वही अल्पसंख्यक जिनके बीच ऐसे कुछ कट्टरपंथी है जो डेनमार्क में भी उनके धर्म के खिलाफ अगर कोई फोटो छपे या लिखा जाएं तो इस देश को नर्क बना डालते हैं. फिलिस्तीन में अत्याचार हो तो दिल्ली की सड़कों पर जाम और मार्च निकलते है. लेकिन कभी किसी को पाकिस्तान या फिर अफगानिस्तान या फिर बांग्लादेश में इन शैतानी कृत्यों पर भर्त्सना करते हुए या किसी जूलुस को निकालते हुए सुना या देखा है क्या.
नागरिकता संशोधन कानून को पास होते ही देश की सड़कों पर बवाल मच गया. कानून में मुस्लिमों के खिलाफ कुछ नहीं है लेकिन उनको लगता है कि अत्याचार हुआ क्योंकि उन तीन इस्लामिक देशों के बहुसंख्यक मुस्लिमों को यहां अत्याचार पीडित क्यों नहीं माना गया, और बहुत सारे राजनीतिक दलों को लगा कि वोट बैंक और ब्लैकमेलिंग का ये हथियार काफी कारगर है. मीडिया में अंग्रेजी के बौनों (पत्रकारों) का झुंड कही भी मिलता है तो एक ही आवाज निकालता है संविधान के साथ छेड़छाड़, उसमें महिला पत्रकारों की जमात भी है जिनको कई बार हिंदुस्तान के होने से नफरत करते हुए भी महसूस किया जा सकता है. उन लोगों ने एक जिहाद छेड़ दिया.
कई को बहुत सारे कानून याद है लेकिन तीन देशों में अल्पसंख्यकों के साथ क्या हुआ इसका कोई कायदा याद नहीं. क्योंकि वो इतने सेफ अंदाज में रहने की आदी है कि गाड़ी के सामने से यदि कोई उल्टी तरफ से आ गया तो सीधे पुलिस कमिश्नर को डांटना चाहती है. सीएए के खिलाफ सबसे पहला तर्क होता है कि इन तीन देशों में मुस्लिमों के साथ भी बहुत अत्याचार होता है. मुझे कई बार लगता है कि वाइन का गिलास दुनिया का सच बदल देता है. इस बात का साफ साफ जिक्र है कि इन तीन इस्लामिक राष्ट्रों के अल्पसंख्यकों पर हुए अत्याचारों के शिकार लोगों को. अब वहां धर्म के आधार पर मुस्लिम धर्म के फिरकों को कैसे अल्पसंख्यक माना जा सकता है. अहमदिया सबसे पहला शब्द है जो उनकी जुबान से निकलता है फिर शिया और बलूच और हजारा या ऐसे ही और भी संप्रदाय.
लेकिन वो शायद ही इस बात की ओर ध्यान देती हो कि शिया, अहमदिया, हजारा या फिर बलूच ये सब अपने को मुस्लिम मानते है और कहते है और उसके बाकि तमाम धार्मिक तौर-तरीकों को अपनाते है सिवाय एक दो परंपराओं को लेकर मतभेद होने के और इन समुदायों के प्रमुख व्यक्तियों ने देश के विभाजन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और हिंदुओं पर या फिर दूसरे गैर मुस्लिमों पर अत्याचार करने में अपना योगदान दिया था. आजादी के बाद अगर पाकिस्तान में राजनीति ने अपनी अलग चौसर बिछाई तो उसमें इस्लाम के ये फिरके और इनके लोग मात खा गये तो इसमें उत्पीड़न का कोई रोल नहीं धर्म का धर्म के अंदर के अलग अलग फिरकों की राजनीति है. शिया लोगों को ऐसा कौन आदमी है जो मुस्लिम नहीं मानता या फिर ऐसा शिया मिलेगा क्या जो अपने को मुस्लिम नहीं मानता हो. क्या ईरान को कोई गैर इस्लामी देश कह सकता है क्योंकि वो शिया मुल्क है. अब ऐसे में शियाओं को उन बेबस और मजलूम अल्पसंख्यकों के बराबर रखना जो मुस्लिम नहीं है, निर्लज्जता की हद से ज्यादा मानवता के खिलाफ या फिर हिंदुओं से नफरत ज्यादा दिखाता है. बहुत सी पत्रकार को विद्वान बनने के लिए इस बात का जिक्र करने लगती है कि उनके पिता वही रहते थे और शरणार्थी बन कर आएं यहां अपना मुकाम बनाया और आज इस कानून से उनको दुख हो रहा है.
यहां इस बात से किसी ने कोई ऐतराज नहीं किया कि आपके पूर्वजों का योगदान रहा लेकिन इसी आधार पर आपको देश के टुकड़े टुकड़़े करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है कि आप आम जनता के हितों के खिलाफ जाकर अपनी विद्वता दिखाने के लिए लाखों मजलूमों को हक से दिलाने वाले कानून का विरोध करने लगे और आप को विद्वान भी मान लें ये कुछ ज्यादा नहीं क्या मैडम. इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि मुसलमानों ने अपना देश मांगा यानि एक धर्म जो दूसरी मुल्क से आया और बहुधा हमलावर के तौर पर आया यहां के लोगों ने उसको अपनाय लेकिन फिर उन्हीं लोगो ने मूल देश से अलग देश मांग लिया और देश को टुकड़ों में बांट दिया. राजनीति की इंतेहा देखिए कि बहुसंख्यकों को उसका जिम्मेदार ठहरा दिया. बार-बार एक भाषण कि सामने रखना कि उनके पुरखों ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था इसलिए वो यहां कुछ भी तोड़ेंगे और वो तमाम कानून नहीं मानते जो उनको देश के बाकि आबादी के बराबर रखे तो क्या इस बात के लिए समझौता किया था कि वो देश को तोड़ने की भीड़ का हिस्सा बनते रहेंगे. देश में ब्लैकमेलिंग की राजनीति करते रहेंगे.
इस अल्पसंख्यक समाज को बराबरी देने वाले उस बहुसंख्यक समाज का कोई योगदान जीरों ही कर दिया जिसने विभाजन की पीड़ा सहकर भी बराबर की हिस्सेदारी दी. हजारों लाखों लाशों को देखकर भी अपना आपा नहीं खोया और नैसर्गिक तौर पर हिंदू ठहराएं गए देश को धर्मनिरपेक्ष बनाया. इसके लिए बहुत से कांग्रेसी नेताओं को गाते बजाते हुए देखता हूं कि फलां नेता की वजह से या फलां नेता की वजह से लेकिन ये कहना बहुत मुश्किल से निकलता है कि ये बहुसंख्यक समाज की अंतर्चेतना का विस्तार ही इसका असली कारण है. ( आज शशि थरूर ने भी उपनिषद का उदाहरण दिया अपने ट्वीट पर और ये समझ ही नहीं पाया वो विद्वान इससे उसी की पार्टी केनेताओं का दावा कि गांधी नेहरू धर्मनिरपेक्षता के ध्वजवाहक हैझूठा साबित होता है). फिर ऐसा क्या है कि इस पर दंगें हो रहे है ऐसा क्या है कि पुलिस पर हमले, शहर की संपत्तियां जला देने या फिर सड़कों को पत्थरों से पाट देने के पीछे कारण क्या हो सकता है.
क्या ये उन कट्टरपंथियों की साजिश ही नहीं है जिन्होंने इस देश को फिर से खंडित करने का अभियान छेड़ रखा है. उन लोगों का तो नहीं जो गज्वा ए हिंद में यकीन करते है या फिर वो जो काफिरों की औरतों को सेक्स स्लेव बनाने और बच्चों को गुलाम बनाने की चाहत में जुड़े हुए है. इस बातों को कुछ भी कह सकते है लेकिन केरल से लेकर कश्मीर तक आईएसआईएस के आंतकियों की मौजूदगी और देश भऱ में धमाके करने की ख्वाहिश.
अजनबी दोस्त हमें देख, कि हम
कुछ तुझे याद दिलाने आए
अब तो रोने से भी दिल दुखता है
शायद अब होश ठिकाने आए
क्या कही फिर कोई बस्ती उजड़ी
लोग क्यों जश्न मनाने आए
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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