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अयोध्या मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने भविष्य का रास्ता दिखाया, जो है आपसी सौहार्द्र और भाई चारे भरा

सदियों से देश के हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई की तरह काम करने वाले अयोध्या मसले पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने वास्तव में आगे बढ़ने का एक रास्ता बनाया है.

Updated on: 09 Nov 2019, 06:48 PM

highlights

  • सर्वोच्च अदालत ने सभी पक्षकारों को खुश करने वाली फैसला दिया है.
  • अब केंद्र मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतने वाले कदम उठाए.
  • सभी पक्षों के साथ किया न्याय. जोड़ने-जुड़ने का दौर शुरू हो.

नई दिल्ली:

सदियों से देश के हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई की तरह काम करने वाले अयोध्या मसले पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने वास्तव में आगे बढ़ने का एक रास्ता बनाया है. विवाद से जुड़े सभी पक्ष इस पर सहमत हैं. सर्वोच्च अदालत ने सभी पक्षकारों को खुश करने वाली फैसला दिया है. 2.77 एक विवादित जमीन रामलला विराजमान को राम मंदिर बनाने के लिए दे दी गई है. संविधान के अनुच्छेद 142 से मिली शक्तियों का इस्तेमाल कर मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ जमीन देने का केंद्र सरकार को निर्देश दिया है. साथ ही यह भी निर्देश दिया कि मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार एक ट्रस्ट बनाए और उसमें निर्मोही अखाड़ा को भी प्रतिनिधित्व दिया जाए.

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मुस्लिम पक्ष ने भी फैसले को स्वीकार किया
सबसे अच्छी बात यह है कि कोर्ट का फैसला आने से पहले तमाम मुस्लिम पक्ष सार्वजनिक रूप से यह बात कह चुके थे कि सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आएगा, वो बगैर किसी ना नुकुर के उन्हें कुबूल होगा. फैसला आने के बाद इसी बात पर वह कायम भी है. दरअसल अयोध्या में वर्ष 1992 में मस्जिद गिराए जाने के बाद से इस विवाद को लेकर मुसलमानों की सोच में बहुत बदलाव आया है. मुस्लिम पक्ष ने भी कुछ बिंदुओं से असंतुष्टि जताते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ससम्मान स्वीकार किया है. फैसले के फौरन बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरफ से की गई प्रेस कांफ्रेस में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के वकील रहे ज़फरयाब जिलानी ने मुसलमानों से अपील की कि इस फैसले का कहीं कोई विरोध या इसके खिलाफ धरना-प्रदर्शन नहीं किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, 'कुछ बिंदुओं से हम संतुष्ट नहीं हैं लेकिन फिर भी हम उसका सम्मान करते हैं.'

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मंदिर के पक्ष में फैसले के संकेत पहले से मिलने लगे थे
अयोध्या का फैसला राम मंदिर के पक्ष में आएगा इसके संकेत पहले से मिलने शुरू हो गए थे. कुछ महीने पहले ही एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है. नमाज़ कहीं भी पढ़ी जा सकती है. उसके लिए मस्जिद का होना जरूरी नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या पर सुनवाई करने से पहले बातचीत से मामले को सुलाने का एक मौका दिया था. इसके लिए एक मध्यस्थता कमेटी भी बनाई थी. कमेटी ने आठ हफ्तों तक सभी पक्षों से बातचीत भी की लेकिन इसका कोई रास्ता नहीं निकला, तब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई शुरू की. हालांकि मुस्लिम पक्ष की तरफ से सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कुछ विसंगतियों की तरफ इशारा किया गया है.

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संसद का कानून सौहार्द्र की रखेगा नींव
ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि मंदिर मस्जिद से जुड़े अन्य विवादों को पनपने नहीं दे. यहां याद दिलाना जरूरी है कि वर्ष 1991 में संसद ने कानून बनाया था जिसके तहत गारंटी दी गई है कि 15 अगस्त, 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में है उसे बदला नहीं जा सकता. इस कानून के दायरे से अयोध्या विवाद को अलग रखा गया था. तमाम मुस्लिम संगठन भले ही मन बना चुके हैं कि अगर सरकारें यह गारंटी देती हैं तो वो खामोश रहकर फैसला मानेंगे. मामला इसी तरह बढ़ता हुआ दिख रहा है. ऐसे में केंद्र सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है कि वो मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतने के लिए गारंटी दे कि अयोध्या के बाद अब किसी और मस्जिद पर हिंदू संगठन दावा नहीं करेंगे.