'आजाद हिंद सरकार' की 75वीं जयंती: सुभाष चंद्र बोस — विरोध भी, सम्मान भी!

तर्क हो सकता है कि इस सबके पीछे भाजपा की मंशा सियासी फायदा उठाने की है. वजह कुछ भी हो लेकिन इस मौके पर अतीत के पन्नों को पलटना जरूरी हो चला है.

तर्क हो सकता है कि इस सबके पीछे भाजपा की मंशा सियासी फायदा उठाने की है. वजह कुछ भी हो लेकिन इस मौके पर अतीत के पन्नों को पलटना जरूरी हो चला है.

author-image
arti arti
एडिट
New Update
'आजाद हिंद सरकार' की 75वीं जयंती: सुभाष चंद्र बोस — विरोध भी, सम्मान भी!

नेताजी सुभाष चंद्र बोस (फाइल फोटो)

21 अक्टूबर 2018 भारत में राजनीतिक इतिहास के लिहाज से खासा महत्वपूर्ण दिन माना जाएगा. 'आजाद हिंद सरकार' की इस दिन 75वीं जयंती है, लेकिन मामला सिर्फ जयंती तक सीमित नहीं है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस मौके पर लाल किले में तिरंगा फहराया. आजाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ.

Advertisment

इस मौके पर मोदी ने सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज के योगदान का जिक्र किया तो कांग्रेस पर अनदेखी का आरोप भी लगाया. इसी आरोप के साथ मोदी सरकार सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी ही नहीं बल्कि सरदार पटेल और डॉ. आम्बेडकर को भी अधिकतम सम्मान देने में जुटी है.

तर्क हो सकता है कि इस सबके पीछे भाजपा की मंशा सियासी फायदा उठाने की है. वजह कुछ भी हो लेकिन इस मौके पर अतीत के पन्नों को पलटना जरूरी हो चला है.

हार रमैया की तो आपत्ति महात्मा गांधी को क्यों?

साल 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव होना था. मुकाबले में एक ओर सुभाष चंद्र बोस थे, जिनकी लोकप्रियता चरम पर थी. शायद यही वजह थी कि नेहरू ने सुभाष के मुकाबले चुनाव लड़ने से मना कर दिया था.

आखिरी वक्त पर मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने अपना नाम वापिस ले लिया. किसी तरह पट्टाभि सीता रमैया को चुनावी मुकाबले में उताया गया, जिन्हें महात्मा गांधी का आर्शीवाद प्राप्त था. रमैया चुनाव हार गए, लेकिन बापू बोले 'रमैया की हार मेरी हार.'

नतीजतन पूरी कांग्रेस समिति ने सुभाष के साथ काम करने से इंकार करते हुए विरोध में इस्तीफा दे दिया. मजबूरन बोस को पद छोड़ना पड़ा. माना जाता है कि डर बोस की लोकप्रियता का था.

यह भी देखें: अनुराग दीक्षित का ब्लॉग: आयुष्मान योजना से बदलेगी स्वास्थ्य सुविधा की तस्वीर, चौंकाने वाले हैं आंकड़ें

विरोध सुभाष के फौजी तरीके का या लोकप्रियता का?

ऐसा माना जाता रहा है कि क्रांतिकारी विचारधारा के चलते ही सुभाष चंद्र बोस का कांग्रेस पार्टी में विरोध था. हिंसा का सहारा लेकर आजादी हासिल करना कांग्रेस की अहिंसात्मक रणनीति के खिलाफ था, लेकिन दूसरी तरफ विश्व युद्ध में अंग्रेजों का साथ दिया जाता है. आजादी के तुरंत बाद कश्मीर के लिए सेनाएं भेजी जाती है. हैदराबाद के निजाम के खिलाफ फौजी एक्शन होता है तो वहीं गोवा में सेनाएं भेजकर पुर्तगाल शासन का अंत होता है. जाहिर है ये सब अहिंसात्मक रास्ता नहीं था, तो सवाल उठता है कि विरोध सुभाष चंद्र बोस के फौजी तरीके का था या लोकप्रियता का?

क्या थी आजादी के नायकों की सोच?

सुभाष चंद्र बोस — महात्मा गांधी

वैसे तो सुभाष स्वामी विवेकानन्द और अरविंद घोष से प्रभावित थे, लेकिन रवीन्द्रनाथ ठाकुर के कहने पर वो महात्मा गांधी से पहली बार मुंबई में जाकर मिले. गांधी जी के विचारों से प्रेरित होकर सुभाष चंद्र बोस ने अपनी नौकरी छोड़ दी और आजादी की लड़ाई में कूद गये, लेकिन आजादी की लड़ाई का रास्ता कैसा हो? इसे लेकर सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के बीच दूरियां बढ़ती चली गईं. रिश्ते इतने बिगड़े की सुभाष चंद्र बोस के अध्यक्ष चुने जाने पर महात्मा गांधी खुलकर विरोध में आ गए. वो शख्स, जिन्होंने बापू के कहने पर अपनी नौकरी छोड़ दी वो महात्मा गांधी से ही दूर गया! इन दूरियों के बीच भी वो सुभाष ही थे, जिन्होंने पहली बार महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया और वो बापू थे, जिन्होंने सुभाष चंद्र बोस की मौत की खबर सुनकर स्वीकारा कि देश का सबसे बहादुर व्यक्ति आज नहीं रहा.

सुभाष चंद्र बोस— भगत सिंह

माना जाता है कि भगत सिंह को फांसी दिए जाने पर ही सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी और कांग्रेस का विरोध किया था, लेकिन जिक्र मिलता है कि भगत सिंह आजादी के लिए बेहतर रणनीतिकार जवाहर लाल नेहरू को मानते थे ना कि सुभाष चंद्र बोस को!

सुभाष चंद्र बोस— नेहरू

बात नेहरू और सुभाष के रिश्तों की करें तो जहां एक तरफ 1939 के चुनाव में नेहरू ने सुभाष के सामने लड़ने से इंकार कर दिया था. वहीं दूसरी तरफ 'लाल किला ट्रायल' में आज़ाद हिंद फौज के तीन अफसरों कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शाहनवाज़ खान के पक्ष में मुकदमा लड़ने आए वकीलों में तेज बहादुर सप्रू, भूलाभाई देसाई समेत कई और वकीलों में एक नाम और था — पं. जवाहर लाल नेहरू. सुभाष के जवानों का मुकदमा वो नेहरू लड़ना चाहते थे, जिन पर सुभाष चंद्र बोस के परिवार की करीब दो दशक तक जासूसी का आरोप लगा, जिसका खुलासा आईबी की दो फाइलों से हुआ.

और पढ़ेें: रूस के साथ परमाणु संधि से अलग होगा अमेरिका : डोनाल्ड ट्रंप

सुभाष चंद्र बोस— सरदार पटेल

महात्मा गांधी की आपत्ति के बाद सुभाष चंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटने पर देशभर में आंदोलन कर विरोध दर्ज कराने का फैसला हुआ. फैसले से कांग्रेस संगठन में डर और बढ़ गया. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक तब सरदार पटेल ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सुभाष चंद्र बोस को पार्टी में अनुशासन उल्लंघन करने का नोटिस देने की सलाह दी. समय का चक्र देखिए करीब 7 साल बाद साल 1946 में जवाहर लाल नेहरू के मुकाबले खुद सरदार पटेल को अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा. इस बार भी विरोध की वजह महात्मा गांधी ही थे.

कांग्रेस से दूरी बनाने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने फारवर्ड ब्लाक का गठन किया, जिसकी राजनीतिक जमीन चुनाव दर चुनाव सिमटती रही, लेकिन एक तबके का मानना है कि अगर आज सुभाष चंद्र बोस जीवित होते तो कांग्रेस को पहली शिकस्त 1977 में नहीं बल्कि काफी पहले मिल चुकी होती!

Source : News Nation Bureau

netaji subhash chandra bose PM Narender Modi Netaji azad hind sarkar anuraj dixit
      
Advertisment