अग्निपथः ग्रामीण बेरोजगारी मिटाने को सेना पर निर्भरता कठिन जोखिम है
मोदी सरकार में राज्यमंत्री व देश के पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि इस योजना को बनाने की प्रक्रिया में वे खुद शामिल नहीं थे , इसलिए योजना में क्या है इस बारे में वे कुछ बताने की स्थिति में नहीं हैं।
नई दिल्ली :
मोदी सरकार में राज्यमंत्री व देश के पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि इस योजना को बनाने की प्रक्रिया में वे खुद शामिल नहीं थे , इसलिए योजना में क्या है इस बारे में वे कुछ बताने की स्थिति में नहीं हैं। जनरल सिंह के इस बयान को सरकार व सैन्य हल्कों में गहरा असमंजस है। इससे इस बात का सीधा आभास मिलता है कि ऐसा क्यों है कि ही सरकार मे बैठे मंत्री तक को भरोसे में लेना या घोषणा करने से पहले उन्हें भरोसे में लेना भी जरूरी नहीं समझा।
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केंद्र सरकार को बखूबी पता है कि 2024 के आम चुनाव में बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा बनेगा। विगत 8 सालों से केंद्र सरकार से रिटायर होने वाले कर्मचारियों की जगह नए कर्मचारियों की भर्तियां न के बराबर हैं। आर्थिक तंगी और संसाधनों व निवेश में गिरावट की मार झेल रही कई राज्य सरकारें विगत दो वर्षाें से खाली जगहों को भरना तो दूर आंशिक तौर पर भी नई भर्तियां नहीं कर पा रहे। बड़ी मुश्किल है कि ग्रामीण बेरोजगारी को दूर करने का सारा दारोमदार सेना के कंधो पर आ गया। यानी सेना में भर्ती निकलना बेरोजगारी दूर करने का सबसे बड़ा जरिया मान लिया गया।
आर्थिक मंदी और भविष्य में बढ़ते पेंशन व भारी भरकम सैन्य बजट को काबू में रखने के लिए सरकार के पास कोई विकल्प नहीं हैं। भारत के पड़ोस का सुरक्षा बातावरण ल्रगातार आक्रामक हो रहा है। युद्ध की महंगी तकनीकें और आधुनिक साजो सामान, लड़ाकू विमान जैसी कई चीजें दुनिया के बाजार में बहुत महंगी हो चुकी हैं।
सरकार में शीर्षस्तर पर ही विमर्श की कमी साफ झलकती है। विगत 8 सालों में ही नहीं उसके पहले भी साल दर साल केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में जितने भी कर्मचारी रिटायर होते हैं, उनकी जगह कोई भर्ती नहीं की गई। सेना में 15 से 19 साल की नौकरी करने वाले ज्यादातर जवानों को अपने राज्यों में रोजगार के लिए दर दर भटककर भी नौकरी नसीब नहीं होती। अग्निवीरों के लिए जो भर्तियां निकलेंगी, उनमें में 4 साल तक सेना में काम करने के बाद जब वे अपने घरों को वापस जाएंगे तो उनमें राज्य सरकारों के पास रोजगार देने के वायदे की कोई कानूनी गारंटी नहीं होगी। इसका सबूत है कि सेना से अपने जिले या प्रदेश में सरकारी नौकरी की तलाश करने वालों में 98 प्रतिशत को रिटायरमेंट के बाद की जॉब नहीं दे सके। जबकि सरकार पूर्व सैनिकों को रिटायरमेंट के बाद सम्मानजनक रोजगार देने के आश्वासन देती रही है।
राज्यों में सैनिक कल्याण बोर्ड भी बने हैं लेकिन कई प्रदेशों में वे राजनीतिक दखलंदाजी के भी शिकार बनकर अपने मूल मकसद से भटक गई हैं। सैन्य बहुल राज्यों में उत्तराखंड जैसे पहाड़ी प्रदेश में भी शामिल हैं, जहां सूदूर पहाड़ों से भारी पलायन हो रहा है। गांव गांव में पूर्व सैनिकों को वहां पलायन रोकने में सरकार का हाथ बंटाने में सहयोग की बातें हवा हवाई होे गईं। 99 प्रतिशत पूर्व सैनिक खुद ही पहाड़ों से पलायन कर गए। बहरहाल इसके पीछे की और भी कई वजहें हैं जिन पर बात फिर कभी।
कोई संदेह नहीं है कि देश में नए तरह की सामारिक चुनौतियां और बदलते दौर में अत्याधुनिक टैक्नालॉजी ने युद्ध की विधाओं और तरीकों को भी बदल दिया है। भविष्य के युद्धों को जमीन से जमीन तक परंपरागत तरीकों से लड़ने के बजाय नई तकनीकों से लड़ा जाएगा। जाहिर है कि पैदल सेना की तादाद में कटौती करना वक्त की मांग है। सरकार कटघरे में इसलिए है क्योंकि योजना के बारे में विशेषज्ञों के साथ कभी कोई विचार विमर्श नहीं कराया गया। कोविड के बहाने 2020 के पहले से सेना में सिपाहियों की भर्ती प्रक्रिया को रोक दिया गया। चुनावी सभाओ में बेरोजगार नौजवानों ने तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और यूपी बिहार के मुख्यमंत्रियों के सामने सेना की भर्ती बहाली की मांग की।
छह साल पहले की नोटबंदी के बाद उत्तर भारत खास तौर पर बिहार व पूर्वी यूपी में छात्रों व नौजवानों में बेरोजगारों की लाइनों को और भी लंबा कर दिया। चूंकि सरकार बाकी निजी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा करने में नाकाम रही है इसलिए सरकारी नौकरियों की ओर ही ज्यादातर युवा व उनके मातापिता नजरें गड़ाए हुए हैं। सेना की नौकरी में सबसे बड़ा आकर्षण है रिटायरमेंट के बाद पेंशन और पूर्व सैनिकों के नाते मिलने वाली पेंशन का। बाकी सरकारी नौकरियों में एनडीए की अटल सरकार 2004 के बाद हुई भर्तियों में पेंशन का प्रावधान ही खत्म कर दिया गया। निजी क्षेत्र में नौकरी की गारंटी या सामाजिक सुरक्षा पूरा तानाबाना ही हायर एंड फायर में तब्दील हो चुका है।
पिछले दो दशक से आईटी सैक्टर के बड़े हब नोएडा,गुड़गांव, बंगलौर, पूणे, हैदराबाद आदि कई जगहों पर उभरे हैं। जाहिर है ये जगहें पढे लिखे नौजवानों के लिए बेहतरीन भविष्य व कैरियर बनाने के केद्र के तौर पर स्थापित हुए हैं। इसी तरह बड़े और महंगे बिजनेस स्कूलों में प्रवेश पाने के लिए मोटी रकम देकर कोचिंग पढ़ने के दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरो में जाना दूर की कौड़ी है। ऐसी सूरत में ग्रामीण भारत के दसवीं और इंटर पास बच्चों के पास सुरक्षित रोजगार के लिए सेना और दूसरे अर्धसैन्य बलों में भर्ती के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता।
ग्रामीण भारत में बेरोजगारी बढ़ने का एक और बड़ा कारण यह भी है कि छोटे किसानों के पास परिवार के भरण पोषण के लिए पर्याप्त खेती नहीं रह गई। खेती की उपज से होने वाली आमदानी लगातार घट रही है। ऐसे में दिनों दिन आर्थिक दबाव और कम जोत की सिमटती खेती से परेशान किसान गांव से अपने बच्चों को शहरो में अच्छे स्कूलों में भेजने के बजाय सेना में भेजने को ही सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते हैं।
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