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क्या व्यर्थ जाएगी की प्रियंका की प्रतिज्ञा, यूपी के मुकाबले में कहां है कांग्रेस

यूं तो कहते हैं कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, लेकिन फिर राजनीति के जानकार यूपी की राजनीति में कांग्रेस को हल्का क्यों आंक रहे हैं, क्यों प्रियंका की प्रतिज्ञा के व्यर्थ जाने की आशंकाओं पर बात और बहस हो रही है.

Updated on: 29 Oct 2021, 10:45 PM

highlights

  • आखिर राजनीतिक पंडित कांग्रेस को क्यों आंक रहे हल्का?
  • प्रियंका गांधी अपनी पूरी ताकत यूपी चुनाव में झौक चुकी है
  • बीजेपी व सपा कांग्रेस को मानकर चल रही फाइट से बाहर 

नई दिल्ली :

यूं तो कहते हैं कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, लेकिन फिर राजनीति के जानकार यूपी की राजनीति में कांग्रेस को हल्का क्यों आंक रहे हैं, क्यों प्रियंका की प्रतिज्ञा के व्यर्थ जाने की आशंकाओं पर बात और बहस हो रही है. क्या संगठन नहीं होने को आधार बनाकर कांग्रेस पार्टी को यूपी के चुनावी मुकाबले से खारिज किया जा सकता है... औऱ अगर ऐसा है तो फिर चुनाव से पहले कांग्रेस औऱ प्रियंका की चर्चा हो ही क्यों रही है. ऐसा है तो कांग्रेस क्यों अपने ट्रंप कार्ड कहे जाने वाली नेता प्रियंका को पूरी ताकत के साथ चुनाव में झोंक चुकी है औऱ क्यों प्रियंका ने अपने आप को यूपी का चुनावी चेहरा बना रही हैं, जहां उनके पैरों के नीचे ज़मीन  नहीं है.

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फिर शुरुआत उसी कहावत से करते हैं कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती, तो प्रियंका गांधी भी शायद यही सोचकर कोशिश कर रही हैं, वैसे यूपी में कांग्रेस के पास कोशिश से ज्यादा कुछ नज़र नहीं आता, क्योंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी की ज़मीन यहां सालों से बंजर है औऱ खोखली होती जा रही है, अब प्रियंका की कोशिशें इस ज़मीन को कितना हराभरा बनाएंगी, यूपी के वोटर्स को तय करना है. हालांकि खेत को हरा भरा बनाने के लिए सिर्फ बीज बोना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि खेत औऱ ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लिए बीजारोपण के पहले कड़ी मेहनत मशक्कत करनी होती है. प्रियंका के फ्रंट पर तो कांग्रेस तमाम विपक्षी पार्टियों से आगे दिख रही है, लेकिन यूपी जैसे जातीय औऱ मजहबी ध्रुवीकरण वाले राज्य में वोटों की फसल सिर्फ मुद्दों से खड़ी होगी, इसमें राजनीति के किसी जानकार को संशय ही होगा. ऐसा राज्य जहां श्मशान और कब्रिस्तान तक सियासत होती हो, जातियों पर पार्टियों का ठप्पा लगा हो, धर्म झंडा और पार्टी का डंडा दोनों की जगह तय हो, वहां असमंजस के भंवर में फंसी पार्टी को प्रियंका की नाव किनारे पर ले जा सकती है, बड़ा सवाल यही है?

अब बात यह कि अगर कांग्रेस के चुनावी मुकाबले में पहुंचने के पहले ही इतने किंतु परंतु हैं, तो फिर प्रिय़ंका कोशिश कर रही क्यों रही है, जबकि न उनके पास जातीय समीकरण औऱ न ही धार्मिक ध्रुवीकरण का कोई हथियार जो चुनावी मुकाबले में बढ़त दिला सके. इस सवाल का जवाब आप प्रियंका की प्रतिज्ञाओं में तलाशिए. अखिलेश और मायावती के पास अपना अपना वोट है, जिसके बारे में वो आश्वस्त रह सकते हैं कि वो उनके पास से हर हाल में नहीं डिगेगा, बसे इसमें कुछ एक्स्ट्रा मिल जाए, तो चुनाव में बात बन जाएगी. लेकिन कांग्रेस के पास अब ऐसा कुछ नहीं है, इसीलिए प्रियंका ने अब जाति धर्म से अलग आधी आबादी का दांव चला है, जिसमें महिलाओं को 40 फीसदी टिकट देने का ऐलान शामिल है, इसके अलावा 12 वीं पास कर कॉलेज जाने वाली लड़कियों के लिए साइकिल औऱ स्कूटी देने का वादा करके वोट पक्का करने की कोशिश है. लखीमपुर खीरी में किसानों को कुचलने के मुद्दे से लेकर खाद से परेशान किसान की मौत के मुद्दे पर प्रियंका की पहल एक नया वोट बैंक बनाने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. ट्रेन यात्रा और कुलियों से उनके बीच पहुंचकर बात करने जैसी तस्वीरों से प्रियंका की नई छवि गढ़ने की कोशिश की जा रही है.  

अब बात जातीय औऱ धर्म वाले ध्रुवीकरण की, तो कांग्रेस प्रियंका और राहुल के बहाने मुस्लिम तुष्टीकरण की छवि से बाहर निकलने की पुरजोर कोशिश पिछले कुछ सालों से कर रही है. यूपी चुनाव के पहले वाराणसी में बाबा विश्वनाथ का त्रिपुंड प्रियंका के माथे पर दिखा और दतिया के पीतांबरा मंदिर से भक्ति में लीन प्रियंका की तस्वीर भी इसी रणनीति का हिस्सा है. इन सबसे बावजूद आखिर में फिर वही मुद्दा होगा माहौल में बढत तो इन कोशिशों से मिल जाएगी, ज़मीन पर मजबूती कैसे मिलेगी, जहां मुकाबले में माइक्रो मैनेजमेंट की महारथी बीजेपी पहले ही मजबूती से खड़ी है.