मध्य प्रदेश में क्यों गरमाई आदिवासी राजनीति?
मध्यप्रदेश में इन दिनों आदिवासी राजनीति जोर पकड़ रही है. नेताओं और दलों के बीच सबसे बड़ा आदिवासी बनने की होड़ मची हुई है.
नई दिल्ली:
मध्यप्रदेश में इन दिनों आदिवासी राजनीति जोर पकड़ रही है. नेताओं और दलों के बीच सबसे बड़ा आदिवासी बनने की होड़ मची हुई है. हाल ही में सरकार के गौरव जनजातीय दिवस मनाने के बाद से लेकर आजतक राजनैतिक दल में खुद को आदिवासी हितैषी साबित करने के लिए साम, दाम, दंड भेद की पॉलिसी अपना रहे हैं. दरअसल प्रदेश में आदिवासी राजनीति ने जोर पकड़ा. अगस्त से कांग्रेस ने आदिवासी दिवस पर एक दिन छुट्टी की मांग की. सरकार ने कांग्रेस की मांग खारिज कर दी और बिसरा मुंडा की जयंती पर छुट्टी देने की घोषणा कर दी. इस बीच गृह मंत्री अमित शाह ने जबलपुर में शहीद शंकर शाह और रघुनाथ शाह के बलिदान दिवस पर महाकौशल में बड़ा मजमा लगाया. उसी दिन वहां कांग्रेस ने भी आदिवासी नेताओं के साथ कार्यक्रम किया.
बीजेपी और कांग्रेस का तू डाल डाल और मैं पात पात का झगड़ा बढ़कर जनजातीय गौरव दिवस तक आया. सरकार ने बिसरा मुंडा की जयंती पर बड़ा कार्यक्रम कर उस दिन को जनजातिय गौरव दिवस घोषित किया. सरकार ने मास्टर स्ट्रोक चलते हुए हबीब गंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर रानी कमलापति भी कर दिया. उसके बाद अब मुख्यमत्री शिवराज सिंह चौहान ने 4 अगस्त को टंट्या भील की जयंती पर पातालपानी स्टेशन का नाम बदलने का प्रस्ताव भी केंद्र को भेज दिया.
कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलों की राजनीति के बीच जय आदिवासी संगठन भी लगातार ताल ठोक रहा है.
आइए आपको बताते हैं कि आखिर क्या कारण है कि आदिवासी वोटों को लेकर इतना बवाल है. दरअसल मध्य प्रदेश की राजनैतिक समीकरण कुछ ऐसा है कि जो आदिवासी वोटों पर राज करेगा वहीं सत्ता के सिंहासन तक पहुंचेगा. मध्य प्रदेश में 47 रिर्जव सीटें हैं और तकरीबन 90 सीटें ऐसी हैं जिन पर आदिवासी वोटों से हार जीत का फर्क पड़ता है.
मध्य प्रदेश में हम बात करें तो महाकौशल निमाड मालवा में सबसे ज्यादा आदिवासी है. निमाड मालवा में जो आदिवासी हैं वो भील भिलाला समुदाय से आते हैं उनकी आबादी तकरीबन 60 लाख है. वहीं, महाकौशल में गोंड और बैगा आदिवासी हैं, जिनकी आबादी भी तकरीबन 60 लाख के आसपास है. मध्य प्रदेश में कुल 21 प्रतिशत आबादी आदिवासी है. ऐसे में जिसके साथ आदिवासी वोट होगा वो सत्तासीन होगा. अगर पिछले सालों के विधानसभा चुनावों को देखें तो 2003 में आदिवासी वोट जमकर बीजेपी की झोली में बसरा तो बीजेपी ने सरकार बनाई.
2003 विधानसभा चुनाव में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 41 सीटों में से बीजेपी ने 37 सीटों पर कब्जा जमाया था. चुनाव में कांग्रेस केवल 2 सीटों पर सिमट गई थी. 2008 के चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 41 से बढ़कर 47 हो गई. इस चुनाव में बीजेपी ने 29 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने 17 सीटों पर जीत दर्ज की थी.
2013 के इलेक्शन में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 47 सीटों में से बीजेपी ने जीती 31 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस के खाते में 15 सीटें 2018 के इलेक्शन में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से बीजेपी केवल 16 सीटें जीत सकीं. कांग्रेस ने दोगुनी यानी 30 सीटें जीत लीं, जबकि एक निर्दलीय के खाते में गई. लेकिन, 2021 के उपचुनाव में वापस जोबट सीट बीजेपी के खाते में गई, जिससे बीजेपी के पास 17 सीटें हो गई और कांग्रेस के पास 29.
1. मध्य प्रदेश की कुल आबादी का 2 करोड़ आदिवासी है.
2. इनमें से निमाड मालवा में पाए जाने वाले भील भिलाला तकरीबन 60 लाख हैं.
3. महाकौशल में पाए जाने वाले गोंड की आबादी पचास लाख के आसपास और उसी इलाके के दूसरे सभी आदिवासियों को मिला लिए जाए तो ये बढ़कर 60 -62 लाख के आसपास होता है.
4. कुल 90 सीटों पर आदिवासी वोटों को सीधे असर पड़ता है औऱ 47 सीटें आरक्षित हैं. ऐसे में दोनों ही दलों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है.
1. आदिवासी इलाकों में एक दूसरे को कमतर साबित करने या कह सकते हैं कि खुद को मजबूत साबित करने के लिए लगातार कार्यक्रमों के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराना.
2-बिखरे पड़े आदिवासी समूहों को एकजुट कर पूरे आदिवासी समाज को जोड़ना.
3- निमाड मालवा में आदिवासियों को संगठन जयस तेजी से बढ़ रहा है. जयस का आदिवासियों के बीच बढ़ता जनाधार बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए चुनौती है.
4. 2018 में आदिवासी वोट बैंक को वापस पाकर कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल किया था.
कांग्रेस के सामने चुनौती उस वोट बैंक को बचा कर रखना और बीजेपी के सामने चुनौती उस वोट बैंक को वापस 2003, 2013 की तरह वापस अपने साथ लाना, क्योंकि मध्यप्रदेश की सत्ता की सीढ़ी आदिवासी वोटों से ही गुजरती है. इस बीच जय आदिवासी संगठन (जयस ) के बढ़ता प्रभाव बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए सिरर्दद बना हुआ है.
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