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(source : IANS) ( Photo Credit : IANS)
नई दिल्ली, 28 अगस्त (आईएएनएस)। करीब 5 दशक पहले, 29 अगस्त 1976 को दुनिया ने उसे हमेशा के लिए खामोश होते हुए देखा, जिसने उपनिवेशवाद, असमानता और कट्टरता के खिलाफ कविता को हथियार बना दिया था। काजी नजरुल इस्लाम, जिन्हें लोग विद्रोही कवि कहते हैं, वह सिर्फ एक कवि नहीं थे, बल्कि एक क्रांति थे। उनकी कविताएं और गीत बंगाल से निकलकर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आजादी और न्याय की गूंज बन गई। बांग्लादेश ने उन्हें आधिकारिक रूप से अपना राष्ट्रीय कवि घोषित किया, लेकिन उनका प्रभाव भारत की मिट्टी और आत्मा में भी उतना ही गहरा है।
काजी नजरुल इस्लाम का जन्म 25 मई 1899 को ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रेसीडेंसी के आसनसोल उपखंड (अब पश्चिम बंगाल) के चुरुलिया गांव में एक गरीब मुस्लिम परिवार में हुआ। बचपन की गरीबी ने उन्हें दुखु मियां (दुखों का बेटा) नाम दिया। यही अभाव आगे चलकर उनके साहित्यिक तेवर और विद्रोही चेतना की जड़ बना। कभी मस्जिद में मुअज्जिन की आवाज देने वाले नजरुल चाय की दुकानों में काम करते हुए थियेटर समूहों से जुड़े और साहित्य, कविता व नाटकों की दुनिया में उतरे।
18 साल की उम्र में उन्होंने ब्रिटिश भारतीय सेना ज्वाइन की और तीन साल तक 49वीं बंगाल रेजिमेंट में रहे। सैनिक रहते हुए भी वे अपनी लेखनी को धार देते रहे– उनकी पहली गद्य रचना बाउंदुलेर आत्मकहिनी और पहली कविता मुक्ति इसी दौरान प्रकाशित हुई। सेना से लौटकर उन्होंने पत्रकारिता को अपनी क्रांति का हथियार बनाया। 1920 में उन्होंने नवयुग और बाद में धूमकेतु पत्रिका निकाली, जिनमें उनकी धारदार लेखनी ने ब्रिटिश शासन को हिला दिया। अगस्त 1922 में प्रकाशित कविता आनंदमयी आगमने पर उन्हें राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया। जेल में रहते हुए उन्होंने राजबंदी की जुबानबंदी लिखी और 40 दिन की भूख हड़ताल कर दी।
उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता विद्रोही ने उन्हें विद्रोही कवि की उपाधि दिलाई। यह उपाधि महज सम्मान नहीं, बल्कि उनके पूरे जीवन दर्शन का सार थी। वे न सिर्फ उपनिवेशवाद, बल्कि धार्मिक कट्टरता, लैंगिक भेदभाव और सामाजिक अन्याय के भी प्रखर विरोधी रहे। उन्होंने बांग्ला गजलों की नई धारा शुरू की और प्रेम, स्वतंत्रता और क्रांति को एक साथ पिरोया।
लेकिन 1942 में मात्र 43 वर्ष की उम्र में रहस्यमयी बीमारी ने उनकी आवाज और स्मृति छीन ली। कई इतिहासकार मानते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें धीरे-धीरे जहर दिया था। इसके बाद नजरुल लंबे समय तक एकांत और बीमारी से जूझते रहे। 1972 में बांग्लादेश सरकार ने उन्हें और उनके परिवार को ढाका आमंत्रित किया। स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा पाने वाले देश ने उन्हें नागरिकता दी और राष्ट्रीय कवि घोषित किया। वहीं 29 अगस्त 1976 को उन्होंने अंतिम सांस ली।
नजरुल के साहित्य और गीतों ने न सिर्फ बंगालियों को आजादी के लिए प्रेरित किया बल्कि दुनिया को यह संदेश दिया कि कविता महज कागज पर शब्द नहीं, बल्कि अन्याय के खिलाफ हथियार बन सकती है। उन्होंने 1920 में ही अपने लेख रोज-कियामत में पर्यावरण संकट की भविष्यवाणी कर दी थी, जो दशकों बाद वैश्विक विमर्श बना। इससे स्पष्ट है कि वे केवल विद्रोही कवि ही नहीं, बल्कि दूरदर्शी चिंतक भी थे।
यह कहना गलत नहीं होगा कि काजी नजरुल इस्लाम का जीवन और लेखन एक सेतु है – गरीबी से विद्रोह तक, कविता से क्रांति तक और स्थानीय संघर्ष से वैश्विक चेतना तक। उनकी कविताओं की पंक्तियां आज भी बताती हैं कि बगावत कभी मरती नहीं, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी आत्मा में जीवित रहती है।
--आईएएनएस
पीएसके/जीकेटी
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