स्मृति शेष : ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित यूआर अनंतमूर्ति, आलोचना से नहीं डरने वाले लेखक

स्मृति शेष : ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित यूआर अनंतमूर्ति, आलोचना से नहीं डरने वाले लेखक

स्मृति शेष : ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित यूआर अनंतमूर्ति, आलोचना से नहीं डरने वाले लेखक

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IANS
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित यूआर अनंतमूर्ति, आलोचना से नहीं डरने वाले लेखक

(source : IANS) ( Photo Credit : IANS)

नई दिल्ली, 21 अगस्त (आईएएनएस)। प्रो. उडुपी राजगोपाला आचार्य (यूआर अनंतमूर्ति) को कन्नड़ साहित्य का विरासत माना जाता है। उन्होंने अपनी रचनाओं से कन्नड़ साहित्य को अलग दिशा दी है। उनकी पहचान कन्नड़ भाषा के मशहूर साहित्यकार, आलोचक और शिक्षाविद के रूप में होती है।

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1932 में कर्नाटक के एक छोटे से गांव में जन्मे अनंतमूर्ति ने अपनी लेखनी से न केवल कन्नड़ साहित्य की दिशा बदली, बल्कि समाज की जटिलताओं और विरोधाभासों को भी गहराई से उजागर किया।

अनंतमूर्ति को कन्नड़ साहित्य के नव्या आंदोलन का प्रणेता माना जाता है। उनकी सबसे चर्चित रचना ‘संस्कार’ आज भी भारतीय साहित्य में एक मील का पत्थर मानी जाती है। यह उपन्यास ब्राह्मणवादी मूल्यों और जातिगत व्यवस्था को चुनौती देता है।

कहानी में एक ब्राह्मण पुजारी की निचली जाति की महिला के घर में मौत के बाद अंतिम संस्कार को लेकर उठे विवाद ने सामाजिक संरचनाओं को कठघरे में खड़ा कर दिया था। इस रचना के कारण उन्हें ब्राह्मण समुदाय का विरोध भी सहना पड़ा था, लेकिन अनंतमूर्ति पीछे नहीं हटे। बाद में ‘संस्कार’ पर बनी फिल्म ने भी कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते।

उनकी अन्य प्रमुख कृतियों में ‘भव’, ‘भारतीपुर’, ‘बारा’ और ‘अवस्था’ शामिल हैं। उन्होंने पांच उपन्यास, एक नाटक, छह कहानी संग्रह, चार कविता संग्रह और दस निबंध संग्रह प्रकाशित किए। उनकी रचनाएं कई भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में अनूदित हुईं और उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में भी काम किया।

यूआर अनंतमूर्ति को अपने साहित्यिक योगदान के लिए कई बड़े सम्मान मिले। 1994 में उन्हें कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए देश का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्रदान किया गया। 1998 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया। 2013 में वे मैन बुकर अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार की अंतिम सूची तक पहुंचे।

साहित्य और शिक्षा दोनों क्षेत्रों में उनकी भूमिका समान रूप से महत्वपूर्ण रही। वे मैसूर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे और बाद में महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, तिरुवनंतपुरम तथा केंद्रीय विश्वविद्यालय, गुलबर्गा के कुलपति बने। इसके अलावा, वे नेशनल बुक ट्रस्ट, केंद्रीय साहित्य अकादमी और एफटीआईआई पुणे के अध्यक्ष भी रहे।

अनंतमूर्ति अपने विचारों और बेबाकी के लिए भी जाने जाते थे। समाजवादी और उदारवादी सोच रखने वाले अनंतमूर्ति अक्सर राजनीतिक बहसों के केंद्र में रहे। 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान एक बार उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध किया और यहां तक कहा था कि अगर वे सत्ता में आए तो देश छोड़ देंगे। इस बयान के बाद उन्हें आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने विचारों से समझौता नहीं किया। साहित्य की दुनिया में अपनी अमिट छाप छोड़ चुके यूआर अनंतमूर्ति ने 22 अगस्त 2014 को इस दुनिया को अलविदा कहा था।

साहित्य, शिक्षा और सामाजिक सोच इन तीनों क्षेत्रों में अनंतमूर्ति की उपस्थिति गहरी छाप छोड़ गई। वे केवल कन्नड़ साहित्यकार नहीं थे, बल्कि भारतीय बौद्धिक परंपरा की आवाज थे।

--आईएएनएस

डीएससी/एबीएम

डिस्क्लेमरः यह आईएएनएस न्यूज फीड से सीधे पब्लिश हुई खबर है. इसके साथ न्यूज नेशन टीम ने किसी तरह की कोई एडिटिंग नहीं की है. ऐसे में संबंधित खबर को लेकर कोई भी जिम्मेदारी न्यूज एजेंसी की ही होगी.

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