केंद्र सरकार ने आपराधिक मामलों में दोषी नेताओं पर लाइफटाइम बैन लगाने को गैरजरूरी बताया है. उसका कहना है कि छह साल के लिए डिसक्वालिफिकेशन इसके मुद्दे के लिए पर्याप्त है. यह पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने ये दलील रखी. इस मामले में वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. इसमें आपराधिक मामलों में दोषी नेताओं पर आजीवन बैन लगाने की डिमांड रखी गई है.
संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है
याचिका में मांग रखी गई कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ क्रिमिनल केस का निस्तारण तेज गति से हो. केंद्र सरकार ने इस याचिका को लेकर सुनवाई के दौरान हलफनामा दाखिल किया. इसमें सवाल खड़े किए गए कि क्या आजीवन प्रतिबंध लगाना सही होगा. यह पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है. केंद्र ने तर्क रखा कि अयोग्यता की अवधि संसद की ओर से तर्कसंगत के सिद्धांतों पर विचार के बाद तय होती है.
2013 में सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला
केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 का हवाला दिया था. इस पर केंद्र ने कहा था कि संविधान ने अयोग्यता को नियंत्रित करने वाले कानून बनाने के लिए संसद को अधिकार दिया है. संसद के पास अयोग्यता के आधार और अयोग्यता का समय दोनों तय करने की ताकत है.
आपको बता दें कि अप्रैल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय में कहा था कि कम से कम 2 वर्ष की सजा पाने वाले विधायकों व सांसदों को सदन से तुरंत प्रभाव से निष्कासित किया जाए. इसमें अपील करने के तीन माह की समय सीमा को नाकारा गया था.
धारा 8 और 9 में क्या है
केंद्र सरकार के जानकारी दी कि धारा 8 के तहत किसी विशेष अपराध को लेकर दोषी ठहराए गए शख्स को जेल की अवधि पूरी होने के बाद छह वर्ष तक अयोग्य घोषित किया जाता है. इसी तरह से धारा 9 में यह प्रावधान है कि भ्रष्टाचार या राज्य के निष्ठाहीनता की वजह से बर्खास्त लोक सेवकों को बर्खास्त करने की तारीख से पांच साल तक पात्रता से वंचित रखा जाता है. याचिका कर्ता का तर्क है कि अयोग्यता को लाइफटाइम बैन की श्रेणी में रखना चाहिए.