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एयरलाइंस क्यों हो रहे हैं तबाह? Photograph: (goindigo)
Indian Airlines: भारत की एविएशन इंडस्ट्री में एक पुरानी कहावत चलती है. अगर किसी को अपना पैसा बहुत जल्दी बर्बाद करना हो, तो एयरलाइन शुरू कर लेनी चाहिए. यह मजाक हंसी में कहा जाता है, लेकिन इसके पीछे एक कड़वी सच्चाई छिपी है. दुनिया के सबसे बड़े और तेजी से बढ़ते हुए एविएशन मार्केट का दावा करने वाला भारत, एयरलाइन कंपनियों के लिए किसी कब्रिस्तान से कम नहीं साबित हुआ है. 1991 से अब तक एक दर्जन से ज्यादा कंपनियां शुरू हुईं, उड़ान भरीं, लेकिन फिर हमेशा के लिए जमीन पर लौट आईं.
लिब्रेलाइजेशन ने खोले दरवाजे और बढ़ी भीड़
1991 से पहले आसमान पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में था. विदेशी रूट पर एयर इंडिया, और घरेलू रूट्स पर इंडियन एयरलाइंस ही उड़ान भरती थी. निजी कंपनियों की एंट्री लगभग असंभव थी. लेकिन आर्थिक संकट के बाद जब भारत ने बाजार खोला, तो एविएशन सेक्टर में नए खिलाड़ियों की लाइन लग गई.
1992 में ईस्ट-वेस्ट एयरलाइंस पहली प्राइवेट शेड्यूल्ड एयरलाइन बनी. इसके बाद जेट, दमानिया, मोदीलुफ्त, एनईपीसी समेत कई कंपनियां आईं. शुरुआती उत्साह में सभी ने सर्विस बेहतर की, नया फ्लीट लाया, किरायों को नीचे रखा. लेकिन दशक खत्म होने से पहले ही अधिकतर कंपनियां ध्वस्त हो गई थीं.
सबसे पहले उड़ान और सबसे पहले धड़ाम
केरल के कॉन्ट्रैक्टर वाहिद द्वारा शुरू की गई ईस्ट-वेस्ट ने सस्ते किरायों के दम पर शुरुआत में बाजार बनाया, लेकिन कम रेवेन्यू, बढ़ते खर्च और बैंकों के सहारे हटने से कंपनी का ढांचा बिखर गया. 1995 में वाहिद की हत्या ने कंपनी को पूरी तरह झटका दिया, और 1996 में एयरलाइन बंद हो गई.
दमानिया के साथ क्या हुआ?
दमानिया एयरलाइन ने शॉर्ट रूट्स पर प्रीमियम सुविधाएं दीं. गर्म खाना, बड़ा लेग रूम, बेहतर सर्विस. लेकिन कम किराये और ऊंची लागत के कारण कंपनी चार साल भी नहीं चल सकी. आखिरकार उसने अपने विमान सहारा को बेच दिए, और फिर ऑपरेशन बंद कर दिया.
सहारा ने दो बार लगाई डुबकी
एयर सहारा ने किरायों को आधा कर मार्केट में हलचल मचा दी. नई बोइंग विमान 100% लीज पर लेना कंपनी के लिए भारी पड़ गया. 1997-98 के एशियाई वित्तीय संकट में डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट ने नुकसान कई गुना बढ़ा दिया. सहारा को बचने के लिए पहले 49% हिस्सा जेट एयरवेज को बेचना पड़ा, और 2007 तक पूरी कंपनी जेट के हाथों चली गई. जेट के डूबने पर जेटलाइट भी खत्म हो गई यानी सहारा की दो बार मौत.
आपस में ही भिड़ गए मोदीलुफ्त
मोदी ग्रुप और लुफ्थांसा की साझेदारी से बनी मोदीलुफ्त तीन साल भी नहीं टिक सकी. पैसों के इस्तेमाल को लेकर विवाद बढ़ा तो लुफ्थांसा ने अचानक अपने जहाज वापस ले लिए और DGCA ने कंपनी का लाइसेंस रद्द कर दिया.
सस्ता किराया और महंगा सबक
2003 में एयर डेक्कन ने “चप्पल वाले भी उड़ेंगे” के नारे के साथ किराये ट्रेन से भी सस्ते कर दिए. इससे उद्योग में क्रांति आई, लेकिन डेक्कन भी ज्यादा देर नहीं टिक सकी और किंगफिशर ने इसे खरीद लिया. किंगफिशर खुद लग्ज़री मॉडल की वजह से भारी कर्ज में डूबा और 2012 में खत्म हो गया. इसी तरह पैरामाउंट, एयर पेगासस, एयर कोस्टा, ओडिशा, डेक्कन 360 जैसे रीजनल खिलाड़ी भी आए और बिना निशान छोड़े गायब हो गए. जेट एयरवेज 2019 में ढह गई, और गो फर्स्ट ने 2023 में खुद को दिवालिया घोषित कर दिया.
तो समस्या कहां है?
भारतीय एयरलाइन कंपनियों के लिए सबसे बड़ा संकट है, बढ़ती लागत और गिरता मार्जिन. विशेषज्ञ बताते हैं कि ATF यानी जेट फ्यूल लागत का 40–55% तक हिस्सा ले लेता है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा है. किराये को कम रखना मजबूरी है, वरना यात्री दूसरी एयरलाइन पकड़ लेते हैं. लगभग सभी बड़े खर्च—फ्यूल, लीज, मेंटेनेंस डॉलर में आते हैं. रुपये की हल्की गिरावट भी एयरलाइन के बैलेंस शीट को हिला देती है. कर्ज बढ़ता है, नकदी खत्म होती है, और अंत में लेंडर जहाज ले उड़ते हैं.
कौन कितनी तैयारी में?
आज इंडिगो भारत की सबसे मजबूत एयरलाइन मानी जाती है. इसका मॉडल सरल है. नो फ्रील्स, लो कॉस्ट, एक जैसे विमान और लगभग कोई कर्ज नहीं. लेकिन नए नियम, बढ़ती लागत और प्रतिस्पर्धा उसके मॉडल पर भी दबाव डाल रहे हैं. एयर इंडिया को टाटा ग्रुप ने संभाल लिया है, लेकिन उसे पूरी तरह पटरी पर लाने में अभी समय लगेगा. स्पाइसजेट लगातार वित्तीय संघर्ष में है. अकासा एयर नए जोश के साथ मैदान में उतरी है, लेकिन एविएशन बिजनेस की मुश्किलों से वह भी अछूती नहीं रह सकती.
आने वाले वर्षों में यह साफ होगा कि इनमें से कौन टिकेगा और कौन इतिहास बन जाएगा क्योंकि भारत में एयरलाइन चलाना अभी भी आसमान में उड़ान से ज्यादा, जमीन पर संतुलन का खेल है.
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