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सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण निर्देश सुनाते हुए कहा कि भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला दर्ज करने के लिए पहले अटॉर्नी जनरल (एजी) की मंजूरी आवश्यक होगी.
भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका को सर्वोच्च माना जाता है, और उसकी गरिमा बनाए रखना हर नागरिक का दायित्व है. हाल ही में भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को लेकर दिए गए एक विवादास्पद बयान ने न केवल संवैधानिक मर्यादा पर प्रश्नचिह्न लगाया है, बल्कि देश के कानूनी जगत में गहरी चिंता भी उत्पन्न की है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सोमवार को एक अहम टिप्पणी करते हुए स्पष्ट किया कि किसी भी व्यक्ति की ओर से अवमानना याचिका दाखिल करने से पहले अटॉर्नी जनरल (एजी) की सहमति आवश्यक है. इसके लिए कोर्ट की इजाजत लेने की जरूरत नहीं है.
निशिकांत दुबे ने एक साक्षात्कार में कहा था कि "देश में धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है." यह बयान उस समय आया जब वक्फ अधिनियम संशोधन से जुड़ी याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता और हस्तक्षेप पर राजनीतिक बहस तेज हो गई थी. दुबे के इस बयान को न्यायपालिका की स्वायत्तता और गरिमा के खिलाफ माना गया, जिससे कई कानूनी विशेषज्ञ और वकील असहमत नजर आए.
जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि अदालत की अवमानना अधिनियम, 1971 के प्रावधानों के तहत, कोई भी निजी व्यक्ति एजी या सॉलिसिटर जनरल की सहमति के बिना सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दायर नहीं कर सकता है.
बता दें कि निशिकांत दुबे ने एक समाचार एजेंसी को दिए साक्षात्कार में सीजेआई खन्ना को 'देश में सभी धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए जिम्मेदार ठहराया था.' दुबे के इस बयान ने कानूनी समुदाय में आक्रोश पैदा कर दिया था, जिसके बाद कई वकीलों ने एजी को पत्र लिखकर उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की मांग की थी.
यह मांग इस आधार पर की गई थी कि सांसद के पद पर रहते हुए इस प्रकार की टिप्पणी से जनता में न्यायपालिका के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो सकता है, जो लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा है.
यह घटनाक्रम उस समय सामने आया है जब कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संबंधों में तल्खी की बातें सामने आ रही हैं. कुछ नेताओं की ओर से बार-बार यह आरोप लगाया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट नीतिगत निर्णयों में हस्तक्षेप कर रहा है और कभी-कभी कानून बनाने की भूमिका भी अपना रहा है. हालांकि, संविधान के अनुसार न्यायपालिका का दायित्व सिर्फ संवैधानिक व्याख्या और नागरिक अधिकारों की रक्षा करना है.