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Supreme Court Photograph: (Social Media)
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (3 नवंबर) को उस याचिका पर तत्काल कोई आदेश देने से इनकार कर दिया, जिसमें देश में पोर्नोग्राफी पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी. मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) बी.आर. गवई की अगुवाई वाली पीठ ने कहा कि यह मामला जटिल और सामाजिक प्रभाव वाला है, इसलिए जल्दबाजी में फैसला नहीं किया जा सकता. अदालत ने कहा, ‘नेपाल में जब ऐसा बैन लगाया गया, तब वहां क्या हुआ, यह सबने देखा.’ उनका इशारा सितंबर में नेपाल में हुए उन हिंसक प्रदर्शनों की ओर था, जब जेनरेशन Z के युवाओं ने प्रतिबंध के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था. अदालत ने मामले की अगली सुनवाई चार हफ्ते बाद तय की है.
याचिकाकर्ता की मांग क्या थी?
याचिकाकर्ता ने केंद्र सरकार से पोर्नोग्राफी देखने पर रोक लगाने के लिए एक राष्ट्रीय नीति और कार्ययोजना बनाने की मांग की थी. उन्होंने कहा कि यह खासतौर पर नाबालिगों (18 साल से कम उम्र) के लिए जरूरी है, क्योंकि डिजिटल युग में हर सामग्री अब एक क्लिक पर उपलब्ध है. याचिकाकर्ता के अनुसार, कोविड के दौरान बच्चों ने ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल और लैपटॉप का उपयोग शुरू किया, लेकिन उनमें अश्लील सामग्री देखने पर रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है.
कानून बनाने और नियंत्रण की मांग
याचिकाकर्ता का कहना था कि वर्तमान में ऐसे सॉफ्टवेयर मौजूद हैं, जिनसे माता-पिता बच्चों की ऑनलाइन गतिविधियों पर निगरानी रख सकते हैं, लेकिन देश में इस विषय पर कोई प्रभावी कानून नहीं है. उनका दावा था कि भारत में करीब 20 करोड़ अश्लील वीडियो या क्लिप्स उपलब्ध हैं, जिनमें बाल यौन शोषण से जुड़ा कंटेंट भी शामिल है. उन्होंने कहा कि सरकार के पास सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 69A के तहत वेबसाइट ब्लॉक करने का अधिकार पहले से है, पर इसका प्रभावी उपयोग नहीं हो रहा.
अदालत का रुख स्पष्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सोशल मीडिया और इंटरनेट पर नाबालिगों के उपयोग को नियंत्रित करना अदालत का नहीं, बल्कि सरकार का नीतिगत विषय है. सीजेआई गवई ने यह भी संकेत दिया कि किसी भी प्रतिबंध से पहले उसके सामाजिक और व्यवहारिक असर पर गंभीरता से विचार जरूरी है. अदालत ने कोई निर्देश जारी किए बिना याचिका को आगे की सुनवाई के लिए सूचीबद्ध कर दिया.
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