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Supreme Court Photograph: (Social Media)
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा समय-सीमा तय करने संबंधी राष्ट्रपति के संदर्भ का उत्तर देने से तमिलनाडु मामले में दिए गए फैसले पर कोई असर नहीं पड़ेगा. 13 मई, 2025 को दिए गए संदर्भ पर सुनवाई शुरू करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पाँच-न्यायाधीशों की बेंच ने तमिलनाडु और केरल द्वारा व्यक्त की गई आशंकाओं को दूर करने का प्रयास किया. पीठ ने कहा, "हम यह तय नहीं कर रहे हैं कि तमिलनाडु का फैसला सही है या नहीं. हम उस मुद्दे पर निर्णय नहीं ले रहे हैं. हम केवल राष्ट्रपति द्वारा दिए गए संदर्भ का उत्तर दे रहे हैं."
तमिलनाडु मामले पर कोई निर्णय नहीं सुनाएगा
अदालत ने पूछा कि अगर राष्ट्रपति स्वयं राष्ट्रपति के संदर्भ के माध्यम से विचार मांग रही हैं तो इसमें क्या गलत है. कोर्ट ने यह प्रश्न तब उठाया जब विपक्षी शासित तमिलनाडु और केरल सरकारों के वकील ने राष्ट्रपति के संदर्भ की स्वीकार्यता पर ही सवाल उठाया. बेंच ने कहा कि वह केवल सलाहकारी क्षेत्राधिकार के तहत कार्य कर रही है.संवैधानिक बेंच ने कहा कि न्यायालय केवल कानून पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करेगा और तमिलनाडु मामले पर कोई निर्णय नहीं सुनाएगा. मुख्य न्यायाधीश बी आर गंवई वाली इस बेंच में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए. एस. चंदुरकर शामिल है.
वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने दिया यह तर्क
इससे पहले जस्टिस जे. बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने 8 अप्रैल, 2025 को अपने फैसले में तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों पर अपनी सहमति न देने के फैसले को "अवैध" और "मनमाना" बताया और राष्ट्रपति को इन विधेयकों को मंजूरी देने के लिए तीन महीने का समय दिया. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने बाद में अनुच्छेद 143(1) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए शीर्ष अदालत से यह जानने का प्रयास किया कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार का प्रयोग करने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समय-सीमाएँ निर्धारित की जा सकती हैं. तमिलनाडु सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने तर्क दिया कि वर्तमान मामले की प्रकृति ऐसी है कि पीठ तमिलनाडु मामले में दिए गए निर्णय को प्रभावित कर सकती है.
यह उस निर्णय को कैसे बदलेगा जो पहले ही एक खंडपीठ द्वारा दिया जा चुका है
हालांकि, अदालत ने कहा कि पीठ केवल कानून पर अपना विचार व्यक्त करेगी और तमिलनाडु मामले पर कोई निर्णय नहीं सुनाएगी. उसने यह भी कहा कि पीठ केवल अपनी राय देगी और इससे निर्णय प्रभावित नहीं होगा. इस संदर्भ को एक अंतर-न्यायालयीय अपील बताते हुए, सिंघवी ने दावा किया कि राष्ट्रपति का परामर्शी क्षेत्राधिकार पुनर्विचार याचिका का विकल्प नहीं हो सकता. उन्होंने तर्क दिया कि संविधान पीठ से तमिलनाडु मामले में दिए गए निर्णय, गुण-दोष और विषय-वस्तु को बदलने के लिए कहा जा रहा है. इस पीठ ने सिंघवी से पूछा, "यह उस निर्णय को कैसे बदलेगा जो पहले ही एक खंडपीठ द्वारा दिया जा चुका है? आप इस तरह आगे बढ़ रहे हैं मानो निर्णय स्वतः ही रद्द हो जाएगा. यह सही नहीं है. आप ऐसा क्यों मान रहे हैं?"
समयसीमा को लेकर कही यह बात
केरल सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता के. के. वेणुगोपाल ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय पहले ही संविधान के अनुच्छेद 200 के संबंध में इसी तरह के प्रश्नों की व्याख्या कर चुका है, जिसके अनुसार राज्यपालों को पंजाब, तेलंगाना और तमिलनाडु से संबंधित मामलों में राज्य के विधेयकों पर "यथाशीघ्र" कार्रवाई करनी होती है. वेणुगोपाल ने तर्क दिया कि तमिलनाडु मामले में पहली बार विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर स्वीकृति के लिए एक समय सीमा तय की गई थी, और इस बात पर ज़ोर दिया कि एक बार जब फ़ैसले इस क्षेत्र को कवर कर लेते हैं, तो नए राष्ट्रपति संदर्भ पर विचार नहीं किया जा सकता. वेणुगोपाल ने ज़ोर देकर कहा कि केंद्र को राष्ट्रपति से संदर्भ लेने के लिए अनुच्छेद 143 का सहारा लेने के बजाय औपचारिक समीक्षा की माँग करनी चाहिए थी. हालांकि, पीठ ने उनसे पूछा, "हमें एक भी ऐसा फ़ैसला दिखाइए जहाँ खंडपीठ में संदर्भ मान्य न हो.
हम इस मुद्दे पर फ़ैसला नहीं कर रहे हैं कि तमिलनाडु सही है या नहीं...". अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने केरल और तमिलनाडु दोनों सरकारों की दलीलों का विरोध किया. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पहले लिखित दलील में तर्क दिया था कि राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति पर निश्चित समय-सीमा लागू करने से सरकार के एक अंग द्वारा संविधान द्वारा उसे प्रदान न की गई शक्तियों का प्रयोग करने जैसा होगा, और इससे "संवैधानिक अव्यवस्था" पैदा होगी.