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File Photo (Freepik)
The Pre-Conception and Pre-Natal Diagnostic Techniques (Prohibition of Sex Selection) Act, 2003, जो PC-PNDT Act के नाम से भी जाना जाता है. ये एक्ट अजन्मे बच्चे का लिंग निर्धारण या लिंग-चयन तकनीकों के इस्तेमाल को अवैध बनाता है. पहली बार 1996 में ये कानून प्रसव पूर्व निदान तकनीक (विनियमन एवं दुरुपयोग निवारण) अधिनियम, 1994 के रूप में लागू हुआ था. ये कानून गिरते लिंगानुपात और भ्रूण के लिंग का पता लगाने के लिए Ultrasound तकनीकों के इस्तेमाल की आशंकाओं के वजह से लागू हुआ था.
गर्भधारण पूर्व लिंग के सिलेक्शन की तकनीक को कानून के दायरे में लाने के लिए 2003 में एक्ट को संशोधित किया गया था. PC-PNDT Act के तहत उन तरीकों पर रोक लगाया जाता है, जिनमें डॉक्टर गर्भ ठहरने से पहले ही बच्चे का लिंग तय करने की कोशिश करते हैं, जैसे शुक्राणु छंटाई (sperm sorting).
PC-PNDT Act के अनुसार, हर अल्ट्रासाउंड सेंटर का रजिस्ट्रेशन जरूरी है. इसके अलावा, डॉक्टरों को गर्भवती महिला के हर स्कैन का पूरा रिकॉर्ड रखना होता है.
अधिनियम के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं
- यह प्रसवपूर्व निदान तकनीकों, जैसे- अल्ट्रासाउंड मशीन के इस्तेमाल को नियंत्रित करता है. उन्हें सिर्फ आनुवंशिक असामान्यताएं, गुणसूत्र संबंधी असामान्यताएं, चयापचय संबंधी विकार, कुछ जन्मजात विकृतियां, हीमोग्लोबिनोपैथी और लिंग संबंधी विकारों का पता लगाने के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति देता है.
- गर्भधारण के पहले या बाद में लिंग चयन (sex selection) पर प्रतिबंध लगाता है.
- कोई भी व्यक्ति, गर्भवती महिला या उसके रिश्तेदारों को शब्दों, संकेतों या किसी अन्य तरीके से भ्रूण के लिंग (sex of foetus) के बारे में नहीं बता सकता है.
- कोई भी लैब, केंद्र या क्लिनिक भ्रूण के लिंग (foetal sex) का निर्धारण करने के मकसद से अल्ट्रासाउंड सहित कोई भी टेस्ट नहीं करेगा.
- अगर कोई व्यक्ति किसी नोटिस, पोस्टर, विज्ञापन, मीडिया या किसी भी तरीके से लिंग निर्धारण की सुविधा का प्रचार करता है, तो उसे 3 साल तक की जेल और 10,000 रुपये जुर्माना हो सकता है.
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएं हैं. पश्चिमी भारत के हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में लिंगानुपात (Sex रेश्यो) बहुत कम है.
लड़कियों के लालन-पालन को महंगा माना जाता है
भारतीय परिवारों में लड़कों को पालना पसंद किया जाता है. इस पसंद के पीछे की धारणा यही है कि बेटे परिवार को देखते हैं जबकि बेटियां शादी के बाद परिवार छोड़ देती हैं. लड़कों को एक 'संपत्ति' माना जाता है. वहीं, दहेज और भविष्य में आर्थिक लाभ की कमी के वजह से लड़कियों का लालन-पालन महंगा हो जाता है.
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कानून के अनुसार, केंद्र सरकार को एक केंद्रीय पर्यवेक्षी बोर्ड बनाना होता है. सरकारी अधिकारी, विशेषज्ञ और समाजसेवी संस्थाओं के लोग इस बोर्ड में शामिल किए जाते हैं. परिवार कल्याण विभाग के मंत्री इस बोर्ड के अध्यक्ष होते हैं. परिवार कल्याण विभाग के सचिव बोर्ड के उपाध्यक्ष होते हैं.
इसके अलावा, केंद्र सरकार तीन ऐसे सदस्यों को नियुक्त करती है, जो इन मंत्रालयों से आते हैं –
- महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
- विधि और न्याय मंत्रालय
- भारतीय चिकित्सा पद्धति एवं होम्योपैथी
- इसके अलावा, स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशक भी पदेन सदस्य होते हैं.
केंद्र सरकार इस बोर्ड में 10 और विशेषज्ञों को शामिल करती है, जिसमें 2 चिकित्सा जेनेटिक्स विशेषज्ञ, 2 स्त्री रोग या प्रसूति तंत्र विशेषज्ञ, 2 शिशु रोग विशेषज्ञ, 2 समाजशास्त्री और 2 महिला कल्याण संगठनों के प्रतिनिधि होते हैं. इसके अलावा, संसद के 3 महिला सदस्य भी शामिल होती हैं. 2 लोकसभा से और 1 राज्यसभा से होती हैं.
केंद्र सरकार, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सिफारिश पर बोर्ड के चार सदस्यों को बदलती रहती है. ये सदस्य अलग-अलग राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसके अलावा, परिवार कल्याण विभाग के प्रभारी, केंद्र सरकार के संयुक्त सचिव (या उसके समकक्ष अधिकारी) भी इस बोर्ड के सदस्य सचिव (पदेन) होते हैं.
छह महीने में कम से कम एक बैठक होना जरूरी है
कानून में तय किया गया है कि बोर्ड के सदस्यों का कार्यकाल कितना होगा. बैठकों की प्रक्रिया कैसी होगी. इसके लिए नियम खुद बोर्ड बनाएगा. कम से कम हर छह महीने में एक बार बोर्ड की बैठक होना जरूरी है. सबसे अहम बात, अगर कोई व्यक्ति गर्भपूर्व जांच तकनीक (Pre-natal diagnostic technique) का इस्तेमाल या प्रचार लिंग पहचान और लिंग चयन के लिए करता है, तो बोर्ड का सदस्य बनाने के लिए उसे अयोग्य माना जाएगा.