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राजनीतिक दलों अचानक क्यों आई आदिवासियों की याद, जानें बढ़ा कारण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताह आदिवासी समाज के नायक रहे बिरसा मुंडा की जयंती के अवसर पर संसद में उनकी प्रतिमा पर श्रद्धांजलि अर्पित की. इसके साथ ही आदिवासियों की धरती कही जाने वाले झारखंड की राजधानी रांची में बिरसा मुंडा की स्मृति में एक संग्

Updated on: 17 Nov 2021, 08:30 AM

नई दिल्ली:

देश की राजनीति में हाशिये पर रहे वाले आदिवासी अचानक फ्रंट लाइन पॉलिटिक्स में आते दिखाई पड़ रहे हैं. जिसका सबसे बड़ा कारण आदिवासियों के प्रति जागा राजनीतिक दलों का मोह है. बीजेपी हो या फिर कांग्रेस ​राजनीतिक पार्टियां आदिवासियों की शुभचिंतक बनती दिख रही हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताह आदिवासी समाज के नायक रहे बिरसा मुंडा की जयंती के अवसर पर संसद में उनकी प्रतिमा पर श्रद्धांजलि अर्पित की. इसके साथ ही आदिवासियों की धरती कही जाने वाले झारखंड की राजधानी रांची में बिरसा मुंडा की स्मृति में एक संग्रहालय का अनावरण भी किया. इसके साथ ही केंद्र ने बिरसा मुंडा की जयंती यानी 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस मनाए जाने का ऐलान भी कर दिया. इसके बाद प्रधानमंत्री ने मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में हबीबगंज स्टेशन का नाम रानी कमलापति रेलवे स्टेशन किया जो एक गोंड आदिवासी रानी थीं.

वहीं, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमल नाथ ने कांग्रेस शासनकाल में आदिवासियों के हित में किए गए कामों का याद दिलाया. उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी की सरकार ने आदिवासियों के हित में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए.आदिवासियों के उत्थान के लिए कई बड़ी व कल्याणकारी योजनाएं भी शुरू की गई. जिसका आदिवासियों को अभी तक लाभ मिल रहा है. कमलनाथ ने कहा कि कांग्रेस की यूपीए सरकार साल 2006 में आदिवासी समुदाय के हित के लिए वन अधिकार अधिनियम लाई. जिसने आदिवासियों मजबूती प्रदान की. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ हुआ कि राजनीतिक दल अचानक आदिवासियों का राग अलापने लगे हैं. पिछले कुछ दिनों में ऐसा मध्य प्रदेश या झारखंड में ही नहीं हुआ, बल्कि कई अन्य राज्यों में भी आदिवासियों समाज को लुभाने का प्रयास किया.

दरअसल, राजनीतिक जानकारों की मानें तो इसका बड़ा कारण अगले साल पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव भी हैं. पूरे देश में आदिवासी कुल आबादी का साढ़े आठ प्रतिशत है और इनकी आबादी 11 करोड़ से अधिक है. देश के उन छह राज्यों से अलग हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है. इनमें उत्तर पूर्व के अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मिजोरम, मेघालय, दादर एवं नागर हवेली और लक्षद्वीप है. उत्तर पूर्व के सिक्किम में 33.8 फ़ीसदी और मणिपुर में 35.1 फ़ीसदी आदिवासी आबादी है.

मध्य प्रदेश की अगर बात करें तो यहां जनसंख्या की लगभग 20 प्रतिशत आबादी आदिवासी है. जनगणना 2011 के मुताबिक, मध्यप्रदेश में 43 आदिवासी समूह हैं. इनमें भील-भिलाला आदिवासी समूह की जनसंख्या सबसे ज्यादा 59.939 लाख है. इसके बाद गोंड समुदाय का नंबर आता है, जिनकी आबादी 50.931 लाख हैं.

उत्तर प्रदेश के 13 जिलों में आदिवासी अनुसूचित जनजाति श्रेणी में आते हैं और इनकी जनसंख्या राज्य की कुल आबादी का 2 प्रतिशत है. वहीं पूरे उत्तर प्रदेश में इनीक आबादी को देखें तो यह 4 प्रतिशत हो जाएगी.


मणिपुर में 35.1 फ़ीसदी आदिवासी आबादी है. ऐसे में वहां सियासी तौर आदिवासी समाज की क्या महत्वपूर्णता होगी. इसकी अंदाजा खुद लगाया जा सकता है. हालांकि पंजाब और उत्तराखंड में आदिवासियों की संख्या बहुत कम है. लेकिन राजनीतिक दल उनको लुभाने की कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते.