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आजाद का गुनहगारआखिर किसने की थी चंद्रशेखर आज़ाद की मुखबिरी...इतिहास के इस राज से उठेगा पर्दा

देश की आज़ादी के बाद भी कई बड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की मौत के रहस्य से आज तक पर्दा नही उठा सका इनमें सबसे बड़ा नाम है आज़ाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस है.

Updated on: 09 Aug 2022, 07:31 AM

नई दिल्ली:

देश की आज़ादी के बाद भी कई बड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की मौत के रहस्य से आज तक पर्दा नही उठा सका इनमें सबसे बड़ा नाम है आज़ाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस है. इसी कड़ी में दूसरा बड़ा नाम है अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद का, आज़ाद ने कैसे अंग्रेज पुलिस से मुठभेड़ के दौरान पिस्टल में बची आखिरी गोली अपनी कनपटी पर दाग कर अपने आजीवन आज़ाद रहने के वचन को निभाया ये दुनिया जानती है.... लोग ये भी जानते हैं कि आज़ाद की मौत की वजह किसी नज़दीकी की मुखबिरी थी  जिसने उनकी लोकेशन अंग्रेज पुलिस को बताई थी लेकिन इसको लेकर भी अब तक कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नही था लेकिन हम आज आपको बताएंगे कि वो मुखबिर कौन था जिसकी वजह से देश ने अपने समय के महान क्रांतिवीर को खोया...... देखिए हमारे संवाददाता मानवेन्द्र प्रताप सिंह को ये Exclusive रिपोर्ट........

वो 27 फरवरी 1931 की एक आम सुबह थी जब अचानक इलाहाबाद का अल्फ्रेड पार्क गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा. पार्क में एक जामुन के पेड़ के पीछे इलाहाबाद में पंडित जी नाम से पहचाने वाले चंद्रशेखर आज़ाद अंग्रेज पुलिस से लोहा ले रहे थे. पुलिस के पास आज़ाद की लोकेशन की सटीक जानकारी थी. जब तक आजाद संभलते 80 हथियारबंद पुलिसवालों ने अल्फ्रेड पार्क को घेर लिया। एक तरफ आज़ाद की एकलौती कोल्ट पिस्टल थी तो दूसरी तरफ दर्जनों रायफल और बन्दूकें आग उगल रहीं थी लेकिन आजाद डटे रहे..... उन्हें 5 गोलियां लगीं और वे बुरी तरह घायल हो गए. जब उन्हें लगा कि खून ज्यादा बह जाने के चलते वो बेहोशी में पुलिस के हाथ लग जाएंगे और इसके पहले की उनकी कोल्ट पिस्टल पर पकड़ ढीली हो, पिस्टल में बची आखिरी गोली कनपटी में उतार कर खुद को शहीद कर लिया. आज़ाद अकसर गुनगुनाते थे 'दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद हैं, आजाद ही मरेंगे।' यही सच भी सबित हुआ.

आज़ाद की मौत से पूरा देश गम और गुस्से में डूब गया. आज़ाद को नज़दीक से जानने वाला हर कोई जानता था कि चंद्रशेखर आज़ाद एक बड़े बहुरूपिया थे लिहाजा बिना सटीक मुखबिरी के उन तक पहुंचना नामुमकिन था और हर कोई जानना चाहता था की वो मुखबिर कौन है. चूंकि एनकाउंटर से पहले आज़ाद अल्फ्रेड पार्क से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित आनंद भवन में पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिलकर आये थे इसलिए उंगलियां आनंद भवन पर भी उठी और भी कई तरह कयास 91 सालों तक लगाए जाते रहे लेकिन आज हम आज़ाद के मुखबिर के नाम से 91 साल से पड़ा पर्दा हटा देंगे.

ज़िस अल्फ्रेड पार्क में आज़ाद की शहादत हुई उसी अल्फ्रेड पार्क में इलाहाबाद म्यूज़ियम भी है. इलाहाबाद म्यूसियम में हमारे हाथ एक ऐसी पुस्तक लगी जो मुठभेड़ के दौरान आज़ाद को घेरने वाली 40 सदस्यीय आर्म्ड फोर्स का हिस्सा रहे धर्मेंद्र गौड़ की पर्सनल डायरी पर आधारित है. धर्मेंद्र गौड़ की पुस्तक का नाम है ' आज़ाद की पिस्तौल और उनके गद्दार साथी' धर्मेंद्र गौड़ उस समय इंग्लिश पुलिस में बतौर सहायक केंद्रीय गुप्तचर अधिकारी के तौर पर गुप्तचर शाखा में तैनात थे और वो आज़ाद के साथ हुई पुलिस मुठभेड़ में अंग्रेज पुलिस का हिस्सा थे. इस पुस्तक में उन्होंने जो कुछ लिखा वो उस डायरी का हिस्सा है जिसे वो रोज़ लिखते थे. आज़ाद से जुड़े प्रसंगों में ये एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है. इस डायरी में गौड़ लिखते हैं- 27 फरवरी 1931 को आजाद अल्फ्रेड पार्क पहुंचने से पहले आनंद भवन जवाहर लाल नेहरू से मिलने गए थे। इसके बाद वे सुखदेव राज के साथ सुबह 9 बजे अल्फ्रेड पार्क पहुंचे. यहां भगत सिंह को छुड़ाने और बिखर रहे संगठन को फिर खड़ा करने पर बातचीत चल रही थी.

डायरी में दर्ज जानकारी के मुताबिक वीरभद्र तिवारी ने आजाद और सुखदेव राज को पार्क में देख लिया था. वह तुरंत पुलिस अधिकारी शंभूनाथ के पास पहुंचा और कहा- पंडितजी (चंद्रशेखर आजाद) अल्फ्रेड पार्क में हैं. शंभूनाथ ने अंग्रेज अफसर मैजर्स को आजाद के पार्क में होने की सूचना दी. रिजर्व पुलिस लाइंस इलाहाबाद में सुबह की परेड के बाद सार्जेंट टिटर्टन रिजर्व इंस्पेक्टर्स के कार्यालय में बैठा पेशी के कुछ कागजात देख रहा था. अचानक सवा नौ बजे टेलीफोन की घंटी घनघनाई. पुलिस सुपरिन्टेंडेंट मैजर्स का फोन था. आर्म्ड फोर्स के 80 जवानों को आधे मिनट में अल्फ्रेड पार्क मूव होने का आदेश मिला. 40 जवान हथियारों से लैस थे, तो 40 जवान डंडा रखे थे. सभी ​​​​​​अल्फ्रेड पार्क की ओर भागे। डिप्टी सुपरिन्टेंडेंट विश्वेश्वर सिंह के साथ सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस (स्पेशल ब्रांच) नॉट बावर भी थोड़ी ही देर में अपनी सफेद एम्बेसडर कार से अल्फ्रेड पार्क पहुंच गया.

इससे पहले ही पुलिस बल के जवानों ने पार्क को तीन तरफ से घेर लिया था. अचानक विश्वेश्वर सिंह को साथ लिए नॉट बावर पार्क के अंदर घुसा और आजाद पर फायर कर दिया. गोली आजाद की दाहिनी जांघ में लगी और हड्‌डी तोड़ती हुई निकल गई. धर्मेंद्र गौड़ अपनी डायरी में लिखते हैं- आजाद को एहसास हो गया था कि शायद वे यहां से बचकर न निकल पाएं. उन्होंने सबसे पहले सुखदेव को वहां से भेज दिया और जेब से पिस्टल निकालने लगे। इसी दौरान विश्वेश्वर सिंह ने दूसरी गोली चला दी जो आजाद के दाहिने हाथ को चीरती हुई, उनके फेफड़े में जा घुसी. आजाद ने भी जवाबी फायर किए और नॉट बावर की कार को पंक्चर कर दिया. इसके बाद आजाद की कोल्ट सेमी ऑटोमैटिक गन, जिसे वे ‘बमतुल बुखारा’ भी कहते थे, गरजी और नॉट बावर की कलाई को तोड़ती हुई एक गोली निकल गई। डायरी के मुताबिक आजाद 10 राउंड फायर कर चुके थे। दूसरी मैगजीन लोड करने के बाद आजाद गरजे- ‘अरे ओ ब्रिटिश सरकार के गुलाम। मर्द की तरह सामने क्यों नहीं आते. मेरे सामने गीदड़ की तरह क्यों छिप रहे हो.'

गौड़ आगे लिखते हैं- आजाद को कई गोलियां लग चुकी थीं, लेकिन वे पीछे हटने या सरेंडर करने के लिए तैयार नहीं थे. इसी दौरान कई भारतीय सिपाहियों ने आदेश के बावजूद आजाद पर गोलियां नहीं चलाईं और हवाई फायर करते रहे. इन सिपाहियों को बाद में बर्खास्त कर दिया गया. उधर विश्वेश्वर सिंह ने आजाद को सामने आने के लिए ललकारा, लेकिन तभी आजाद की एक गोली उसका जबड़ा तोड़ते हुए निकल गई. तब तक आजाद 39 राउंड फायर कर चुके थे. अब उनके पास अंतिम गोली बची थी. इसी से उन्होंने अपनी शहादत दी. हालांकि आजाद की शहादत पर भी विवाद चला आ रहा है. एक थ्योरी है कि अल्फ्रेड पार्क में जब उनका सामना अंग्रेजों से हुआ तो उन्होंने पहले पांच गोलियां अंग्रेजों पर चलाईं और फिर छठी गोली खुद को मार ली. आजाद के शहीद होने के बाद पुलिस को यकीन नहीं हो रहा था कि उनकी मृत्यु हो गई हैं. पहले उन्होंने आजाद के शव पर कई गोलियां दागीं, उसके बाद वे उनके पास गए.

धर्मेंद्र गौड़ ने अपनी डायरी में स्पष्ट तौर पर वीरभद्र तिवारी को आज़ाद की लोकेशन बताने वाला मुखबिर बताया है. वीरभद्र तिवारी भी आजाद के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) का सेंट्रल कमेटी मेंबर था। जब संगठन के क्रांतिकारी रमेश चंद्र गुप्ता को उसकी इस मुखबिरी का पता चला तो उन्होंने उरई जाकर तिवारी पर गोली भी चलाई थी. हालांकि वो बच गया और गुप्ता गिरफ्तार हो गए. रमेश चंद्र गुप्त ने अपने इस गुनाह की 10 साल की सजा भी काटी. धर्मेंद्र गौड़ ने अपनी डायरी में एक जगह लिखा है एक बार आजाद ने वीरभद्र को आदेश दिया था कि वह यशपाल को गोली मार दे. वीरभद्र यदि यशपाल का काम तमाम कर देता, तो उसी पार्टी की गतिविधियां कौन बताता ? उसकी अपनी गाड़ी कैसे चलती ? यही कारण है कि उसने यशपाल के सर पर मंडरा रही मौत की छाया का आभास उसे दे दिया. तुरंत भागकर यशपाल ने अपने प्राणों की रक्षा की.

वीरभद्र के इसी एहसान का बदला आज यशपाल चुका रहे हैं जनता को गुमराह करके की आजाद के साथ विश्वासघात करने में उसका हाथ ना था. वास्तविकता यह है कि इन दोनों की मिलीभगत ने ही आजाद को मौत के मुंह में धकेला. आजाद की शहादत के बाद पार्टी के विशेष व्यक्तियों ने ( केवल यशपाल को छोड़कर ) इस घिनौने कार्य के लिए वीरभद्र को ही दोषी ठहराया था यही कारण है कि रमेश चंद्र गुप्त ने दो बार उसे गोली का निशाना भी मनाया । भाग्यवती दोनों ही बार वह बच गया . धर्मेंद्र गौड़ के इस कथन से स्पष्ट होता है कि वीरभद्र ने ही चंद्रशेखर आजाद की लोकेशन की मुखबिरी अंग्रेज पुलिस को दी थी और कहीं ना कहीं उसके साथ यशपाल की भी भूमिका थी जिसे एक बार गोली मारने की जिम्मेदारी उन्होंने वीरभद्र को दी थी. 

वीरभद्र तिवारी भी आजाद के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) का सेंट्रल कमेटी मेंबर था. जब संगठन के क्रांतिकारी रमेश चंद्र गुप्ता को उसकी इस मुखबिरी का पता चला तो उन्होंने उरई जाकर तिवारी पर गोली भी चलाई थी। हालांकि वो बच गया और गुप्ता गिरफ्तार हो गए. 10 साल की सजा भी उन्होंने काटी. रमेश चंद्र गुप्ता ने अपनी आत्मकथा ‘क्रांतिकथा’ में इस पूरी घटना के बारे में दावा किया है। इसके बाद तिवारी का क्या हुआ, कोई नहीं जानता. आज़ाद की शहादत के बाद से ही उनकी और नेहरू की मुलाकात के बाद मुखबिरी आनंद भवन से होने जैसे कयास भी लगाए गए। हालांकि इससे संबंधित कभी कोई ठोस सबूत नहीं मिला। नेहरू अपनी आत्म-कथा में भी इस मुलाकात के बारे में लिखते हैं- मेरे पिता की मौत के बाद एक अजनबी शख्स मुझसे मिलने मेरे घर आए. मुझे बताया गया कि उनका नाम चंद्रशेखर आजाद है। मैंने इससे पहले उन्हें नहीं देखा था, लेकिन दस साल पहले नाम जरूर सुना था, जब वे असहयोग आंदोलन के दौरान जेल गए थे.

वे जानना चाहते थे कि अगर सरकार और कांग्रेस के बीच समझौता हो गया, तो क्या उन जैसे लोग शांति से रह सकेंगे. उनका मानना था कि सिर्फ हिंसक तरीकों से आजादी नहीं जीती जा सकती और ना ही सिर्फ शांतिपूर्ण तरीकों से.