उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में छः महीने से भी कम का वक़्त बचा है। सरकार चला रही सपा परिवार में अंतर्कलह से घायल है और विपक्ष में बैठी बसपा की भी कोई साफ़ रणनीति नज़र नहीं आ रही। भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की रैलियों से चुनावी समर में उतर चुकी है और कांग्रेस प्रशांत किशोर के चुनावी प्रबंधन के सहारे अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही है। जनादेश की तस्वीर तो चुनाव के बाद ही साफ़ होगी लेकिन फिलवक्त कोई तयशुदा तौर पर ये नहीं कह सकता कि फलां पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाएगी।
ऐसे में चुनाव से पहले संभावित मित्रों की तलाश शुरू हो गयी है। अजित सिंह की रालोद का सपा के साथ आना अमूमन तय है और सूत्रों के अनुसार सपा ने राष्ट्रीय जनता दल और जद (यू) से भी अनौपचारिक बातचीत शुरू कर दी है। बिहार चुनाव के दौरान सपा महागठबंधन में थी लेकिन सीट बंटवारे को लेकर मतभेद हुए और सपा अकेले चुनाव में उतर गयी। माना जाता है कि मुलायम और शिवपाल महागठबंधन के पक्ष में थे लेकिन ऐन वक़्त पर रामगोपाल अड़ गए। बिहार में हुए महागठबंधन को इससे कोई नुक्सान नहीं हुआ और विशाल बहुमत के साथ नीतीश मुख्यमंत्री बने। प्रशांत किशोर के प्रबंधन की इसमें केंद्रीय भूमिका रही।
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क्या बिहार चुनाव से सपा को कोई सीख मिली? मिली है। मुलायम और शिवपाल को इस बात का अब तक मलाल है कि बिहार के महागठबंधन से बाहर नहीं आना चाहिए था। अब जब रामगोपाल को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है तो महागठबंधन के लिए भी दरवाजा खुला नज़र आ रहा है। लेकिन सवाल है कि अजित के रालोद के अलावा बाकी दो पार्टियों का प्रदेश में कोई जनाधार नहीं है। तो क्या कांग्रेस से गठबंधन पर भी विचार चल रहा है? सूत्रों की मानें तो शिवपाल प्रशांत किशोर से एक मुलाकात कर चुके हैं। अगर मुलाक़ात हुई है तो बात सियासत और गठबंधन पर ही हुई होगी। प्रशांत जानते हैं कि प्रदेश में चौथे नंबर पर बने रहने की लड़ाई के लिए भी उन्हें सहयोगियों की ज़रुरत होगी। याद करें कि जब सपा टूट के कगार पर थी तो कांग्रेस अखिलेश को साथ आने की 'फीलर्स' भेज रही थी। अखिलेश और राहुल में अच्छी छनती भी है। दोनों एक-दूसरे की तारीफ़ भी करते हैं।
उत्तराधिकार की लड़ाई में शिवपाल बैक फुट पर हैं और अखिलेश ने डंके की चोट पर अपने को उत्तराधिकारी घोषित कर लिया है। सपा दफ्तर में हुई बैठक में उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि टिकट भी वही बांटेंगे। पारिवारिक तूफ़ान से मजबूत होकर उभरे अखिलेश के लिए आगे की चुनौती ये है कि ना सिर्फ बहुमत सुनिश्चित करें बल्कि फिर से मुख्यमंत्री की गद्दी संभालें। ऐसे में क्या कांग्रेस मददगार साबित हो सकती है? शायद हाँ. अखिलेश और राहुल एक-दूसरे के काम आ सकते हैं और प्रदेश के नौजवानों को अपने पीछे लामबंद करने की कूवत रखते हैं। यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं कि अखिलेश उत्तर प्रदेश के 'यूथ आइकॉन' हैं और उनकी छवि बेदाग़ है। चुनाव प्रचार के लिए प्रियंका गाँधी भी अपनी सहमति दे चुकी हैं।
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गेंद कांग्रेस के पाले में है और प्रशांत किशोर का अगला दांव बहुत महत्वपूर्ण साबित होगा। ऐतिहासिक कारणों से कांग्रेस एक उलझी हुई पार्टी नज़र आती है और प्रशांत के लिए भी 'कांग्रेस कल्चर' को समझना अब तक मुश्किल रहा है। कई राजनीतिक पंडित उन्हें पहले ही खारिज़ कर चुके हैं। ऐसे में प्रशांत ऐसी बिसात बिछा रहे हैं, जहाँ यह नज़र आये कि महागठबंधन कांग्रेस और सपा के हित में है। उनके अपने अनुभव भी यही रहे हैं कि विभिन्न दलों को साथ लाकर भाजपा को पटखनी दी जा सकती है।
शिवपाल से प्रशांत की मुलाक़ात से कहानी शुरू हो चुकी है और इसमें अभी कई मोड़ आने हैं। कहीं वर्चस्व की लड़ाई मिलेगी तो कहीं टिकट बंटवारे से उपजे मतभेद, कहीं बयानबाजी मिलेगी तो कहीं पार्टी में टूट-फूट! प्रशांत को इन सबसे पार पाना होगा। ये लड़ाई सिर्फ सत्ता की नहीं, बतौर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत के अस्तित्व की भी है।
Source : आशीष भारद्वाज