लगभग 50 साल पहले जब भारतीय महिलाओं के लिए पर्दा, घूंघट निरक्षरता, वैचारिक गुलामी, पुरुष प्रधान समाज के प्रति पूर्ण समर्पण, बच्चा पैदा करने वाली मशीन, घर की चारदीवारी के बीच उम्र कैद आदि प्रतिमानों से परिभाषित किया जाता था, उस समय यशोदा नामक एक बालिका ने अपने बाल्यकाल से लेकर यौवन काल और मरणासन्न होने तक महिला प्रताड़ना से जुड़ी कुरीतियों, बेड़ियों, निरक्षरता ,अव्यवहारिक परंपराओं सहित तंग मानसिकता को अलग-अलग किरदारों में तोड़ने का प्रयास किया ।
यशोदा के इस संघर्ष गाथा को प्रस्तुत करने का एक बेहतरीन कोशिश लेखक मनोज कुमार राव की पुस्तक यशोदा: एक स्वयंप्रभा स्त्री की वास्तविक कहानी के माध्यम से की गई है जिसकी अत्यधिक सराहना भी हो रही है।
वैश्विक धरातल पर जिस नारी सशक्तिकरण को सामाजिक प्लेटफार्म देने की जो कोशिश आज राज्य और केंद्र सरकारें कर रही है उसको अपने व्यक्तित्व से जुड़े अलग-अलग किरदारों को जी कर यशोदा ने 70 के दशक में ही चरितार्थ कर दिया था। नई दिल्ली के पुष्पांजलि प्रकाशन के द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक आज वुमन एंपावरमेंट के विचार को आम आवाम तक पहुंचाने का जबरदस्त जरिया साबित हो रही है।
14 अध्याय और 84 पृष्ठों वाली इस पुस्तक में कथानक के साथ-साथ अधिकांशत: पात्र वास्तविक है । बिहार राज्य की नामचीन साहित्यिक हस्तियों ने भी इस पुस्तक की सराहना की है। राजभाषा आयोग की अध्यक्ष सविता सिंह नेपाली ने इस पुस्तक की समीक्षा करने की घोषणा भी की है । लेखक के द्वारा कथानक प्रस्तुति के दौरान सरल भाषा का प्रयोग किया गया है । छोटी-छोटी कहानियों वाली यह पुस्तक अपने पाठकों को कहीं भी बोझिल नहीं करती । कथानक अत्यंत रोचक और प्रेरणादाई है। अध्याय खत्म होने के बाद ..ऐसी थी यशोदा. शब्द का प्रयोग अत्यंत प्रभावशाली प्रतीत हो रहा है ।
लेखक मनोज राव ने पुस्तक के कथानक के माध्यम से मूल रूप से ग्रामीण माहौल को दशार्या है लेकिन कहीं-कहीं शहरी परि²श्य के साथ-साथ राजधानी के सियासी महकमे को भी उजागर किया गया है । पेशे से पत्रकार लेखक मनोज कुमार राव के इस पुस्तक लेखन में उनका कार्य अनुभव ²ष्टिगोचर हो रहा है ।
अनटचेबिलिटी अर्थात अस्पृश्यता ,धार्मिक कर्मकांड ,बालिका शिक्षा, पुरुषों के साथ कदम मिलाने वाली नारी समानता, स्वास्थ्य के क्षेत्र में महिला बंध्याकरण ,असामाजिक तत्वों से भिड़ने वाली दिलेरी , कंजरवेटिज्म अर्थात रूढ़िवादिता के खिलाफ दमदार उपस्थिति सहित अन्य कई पहलू से अपने आप को जोड़कर समाज के सामने एक सशक्त नारी के रूप में अपने आप को प्रस्तुत किया गया है।
इस पुस्तक के कई अध्याय अत्यंत रोचक और प्रेरणादाई है । बाल्यकाल में अपने दो भाइयों को दौड़ प्रतियोगिता में हराने वाली यशोदा अधेड़ उम्र में जिले की पहली अनारक्षित क्षेत्र से जीतने वाली जिला पार्षद बनी । ऐसे कई प्रेरणादायक अध्याय इस पुस्तक को चर्चित कर रहे हैं। पुस्तक के 14 अध्याय में नारी के हर सशक्त और मर्यादित रूप को जीते हुए यशोदा का इस दुनिया से विदा लेना बहुत ही मार्मिक ²श्य प्रस्तुत कर रहा है।
बाल्य काल से ही यशोदा ने नारी के सृजन शक्ति और नारायणी के रूप को चरितार्थ किया है। कहीं वह असामाजिक तत्वों से मुकाबला करते हुए प्रतीत होती है तो कहीं बेटियों की शिक्षा के लिए तत्पर होता उसका व्यक्तित्व समाज के सामने पेश होता है । 50 साल पहले छुआछूत का विरोध करते हुए वह समानता का पाठ पढ़ाती है वही महिला बंध्याकरण के लिए स्वयं का उदाहरण निरक्षर महिलाओं के सामने पेश करती प्रतीत होती है ।
धार्मिक आडंबर वाले समाज के सामने स्वयं की प्रबुद्धता और पांडित्य को पेश करते हुए वह नारी के ब्रह्माणी रूप को भी दशार्ती है । किसानी के लिए घर की दहलीज को पार करती यशोदा अधेड़ उम्र में राजनीतिक ओहदा को हासिल करने में भी पूरी तरह से सफल होती है ।
इस पुस्तक को देश के कोने कोने सहित विदेशों में भी आम नागरिक, बुद्धिजीवी और संगठन से जुड़े लोगों से सराहना मिल रही है। बिहार राजभाषा की अध्यक्ष डॉ सविता सिंह नेपाली ने इस पुस्तक के ऊपर समीक्षा लिखने की घोषणा की है तथा देश के विभिन्न प्रान्त और पश्चिमी चंपारण जिले सहित कई जिलों के विद्यालय के पुस्तकालयों में इस पुस्तक को उपलब्ध कराया गया है ताकि छात्र-छात्राएं इससे प्रेरणा ले सकें।
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Source : IANS