सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक अध्यादेश को फिर से जारी करना संविधान के साथ धोखाधड़ी है। इसे दोबारा जारी करने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपाल से अनुमति मिलना यह सुनिश्चित नहीं करता है कि उसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक सुनवाई के दौरान इस बात का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी अध्यादेश का वही प्रभाव होता है, जो किसी पारित कानून का होता है। चीफ जस्टिस टी.एस.ठाकुर की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने 6-1 के बहुमत से कहा कि एक अध्यादेश को संसद या विधानसभा में पेश करना अनिवार्य है।
जस्टिस एस.ए.बोबडे, जस्टिस आदर्श कुमार गोयल, जस्टिस उदय उमेश ललित और जस्टिस एल.नागेश्वर राव ने इस विचार का समर्थन किया, जबकि प्रधान न्यायाधीश ठाकुर ने अलग कारण के साथ ऐसा ही फैसला दिया।
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एक अध्यादेश को दोबारा जारी करने की प्रक्रिया को संविधान के साथ धोखाधड़ी करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति या राज्यपाल से इसे मंजूरी मिलना यह सुनिश्चित नहीं करता है कि उसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती।
अदालत ने यह भी कहा कि अध्यादेश के समाप्त होने या उसे दोबारा लागू होने पर इसके लाभार्थियों के वैधानिक लाभ खत्म हो जाते हैं।
वहीं, जस्टिस मदन बी.लोकुर ने असहमति भरे फैसले में कहा कि अध्यादेश को संसद या राज्य विधानसभा में पेश न करने के पीछे कई कारण हो सकते हैं और इसके लिए उसे अवैध नहीं ठहराया जा सकता।
चीफ जस्टिस ठाकुर ने कहा कि संसद या विधानसभा में अध्यादेश को पेश करने का मुद्दा न्यायालय के समक्ष न्यायिक निर्णय के लिए नहीं है। इससे इस मुद्दे पर भविष्य में विचार का रास्ता खुला हुआ है।
पूरा मामला बिहार में राज्य सरकार द्वारा अध्यादेश के माध्यम से शिक्षकों की नियुक्ति का है। इस अध्यादेश को चार बार जारी किया गया।
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बाद में आई सरकार ने अध्यादेश को जारी करने से इनकार कर दिया, जिसके कारण अध्यादेश के माध्यम से नियुक्त हुए शिक्षकों की नियुक्तियां रद्द हो गईं।
HIGHLIGHTS
- बिहार में अध्यादेश के जरिए शिक्षकों की नियुक्ति से जुड़े मामले पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा
- 'राष्ट्रपति या राज्यपाल से मंजूरी मिलना यह सुनिश्चित नहीं करता है कि उसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती'
Source : IANS