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आजादी के 75 साल बाद भी देशद्रोह कानून जरूरी? सुप्रीम कोर्ट का केंद्र से सवाल

देशद्रोह क़ानून( 124 A) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने अहम टिप्पणी की है.  सीजेआई (CJI) ने सरकार से पूछा- क्या आजादी के  75 साल बाद भी देशद्रोह जैसे क़ानून की ज़रूरत है ?

Updated on: 15 Jul 2021, 12:59 PM

highlights

  • राजद्रोह कानून अंग्रेज़ों के ज़माने का है
  • आज़ादी के 75 साल बाद भी देश में इसकी ज़रूरत : SC
  • सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को जारी किया नोटिस

नई दिल्ली:

देशद्रोह क़ानून( 124 A) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने अहम टिप्पणी की है.  सीजेआई (CJI) ने सरकार से पूछा- क्या आजादी के  75 साल बाद भी देशद्रोह जैसे क़ानून की ज़रूरत है ?, सीजेआई (CJI) ने कहा - देशद्रोह क़ानून औपनिवेशिक क़ानून है. कभी महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की आवाज़ को दबाने के लिए ब्रिटिश सत्ता इस क़ानून का इस्तेमाल करती थी. क्या आजादी के 75 साल बाद भी इस क़ानून की ज़रूरत है.

सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख जज ने ने कहा कि इस क़ानून में दोषी साबित होने का प्रतिशत बहुत  है, लेकिन अगर पुलिस चाहे तो इस क़ानून का सहारा लेकर किसी को भी फंसा सकती है. हर कोई इसको लेकर आशंकित है. इन सब पर विचार करने की ज़रूरत है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा - आजादी के बाद बहुत से क़ानून सरकार ने वापस लिए. क्या इस पर भी सरकार सोच रही है. सरकार विपक्ष की/ असहमति की आवाज़ को दबाने के लिए इस क़ानून का सहारा ले सकती है.

वहीं, सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी पर एडिशनल जनरल (AG) ने कहा कि क़ानून वापस नहीं लिया जाना चाहिए, बल्कि  कोर्ट चाहे तो नए सख्त दिशानिर्देश जारी कर सकता है ताकि राष्ट्रीय हित में ही इस क़ानून का इस्तेमाल हो. सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को नोटिस जारी किया.

CJI एनवी रमना, जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस ऋषिकेश राय की पीठ ने याचिकाकर्ता को याचिका की एक प्रति अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल को सौंपने का निर्देश दिया था. मेजर-जनरल (अवकाशप्राप्त) एसजी वोमबटकेरे द्वारा दायर याचिका में दलील दी गई है कि राजद्रोह से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए पूरी तरह असंवैधानिक है, इसे स्पष्ट रूप से खत्म कर दिया जाना चाहिए.

याचिका में कहा गया कि याचिकाकर्ता की दलील है कि सरकार के प्रति असहमति आदि की असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट परिभाषाओं पर आधारित एक कानून अपराधीकरण अभिव्यक्ति, अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर एक अनुचित प्रतिबंध है और बोलने की आजादी पर संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य डराने वाले प्रभाव का कारण बनता है.