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जब नमाज का पालन जरूरी नहीं, तो हिजाब कैसे जरूरी हो गयाः सुप्रीम कोर्ट

खंडपीठ ने याचिकाकर्ता की दलील पर पूछा, 'यदि इस्लाम में पांच सिद्धांतों को मानने की बाध्यता नहीं है, तो हिजाब को कैसे बाध्य किया जा सकता है. वह भी इस हद तक कि स्कूल तक उसे धारण कर जाना होगा.'

Updated on: 09 Sep 2022, 11:20 AM

highlights

  • हिजाब मामले में सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को आगे की सुनवाई
  • खंडपीठ ने हिजाब की बाध्यता पर मुस्लिम पक्षकार से पूछा प्रश्न

नई दिल्ली:

हिजाब मामले पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने गुरुवार को मुस्लिम पक्षकारों को असहज करता सवाल पूछ लिया. जस्टिस हेमंत गुप्ता और सुधांशु धूलिया की खंडपीठ ने मुस्लिम पक्षकारों से जानना चाहा कि यदि याचिकाकर्ता तर्क दे रहे हैं कि नमाज, हज, रोजा, ज़कात और ईमान रूपी इस्लाम के मूल पांच सिद्धांतों का पालन जरूरी नहीं है, तो फिर हिजाब (Hijab) मुस्लिम महिलाओं के लिए कैसे अनिवार्य हो गया. याचिकाकर्ता फातिमा बुशरा के वकील निजामुद्दीन पाशा ने सर्वोच्च अदालत में दलील देते हुए कहा था कि इस्लाम में अपने अनुयायियों के पांच मूल सिद्धांतों का पालन कराने की जबर्दस्‍ती नहीं है. उन्होंने कहा कि इन सिद्धांतों का उल्‍लंघन करने पर कोई सजा नहीं मिलती है.  

मुस्लिम पक्षकार की दलील
क्रॉस, रुद्राक्ष और जनेऊ के तर्क पर खंडपीठ ने कहा, 'ये यूनिफॉर्म के ऊपर नहीं पहने जाते हैं. ये पोशाक के भीतर छिपे रहते हैं. कोई भी छात्र-छात्राओं से स्कूल यूनिफॉर्म उतार कर पहने गए धार्मिक प्रतीक चिन्ह दिखाने को नहीं कहता है.' इसके पहले पाशा ने दलील देते हुए कहा था,  'पांच सिद्धांतों को पालन नहीं करने की बाध्यता नहीं होने का यह मतलब कतई नहीं है कि ये इस्लाम के लिए जरूरी नहीं हैं. कर्नाटक हाई कोर्ट ने शुरा में बाध्यता नहीं होने को गलत अर्थ में समझा.  इसका मतलब इस्लाम के अनुयायियों को अन्य धर्मों के अनुयायियों को जबरन धर्मांतरित करने से रोकना था. ऐसे में यह फैसला करने के लिए कि हिजाब इस्लाम में एक जरूरी प्रथा नहीं है और इसलिए इसे शैक्षणिक संस्थानों में प्रतिबंधित किया जा सकता है.'

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मुस्लिम महिला के लिए हिजाब दुनिया में सबसे ज्यादा जरूरी
खंडपीठ ने याचिकाकर्ता की दलील पर पूछा, 'यदि इस्लाम में पांच सिद्धांतों को मानने की बाध्यता नहीं है, तो हिजाब को कैसे बाध्य किया जा सकता है. वह भी इस हद तक कि स्कूल तक उसे धारण कर जाना होगा.' इसके पहले पाशा ने अदालत में दलील देते हुए कहा था कि पैगंबर ने महिला के हिजाब को दुनिया और उसकी सारी जरूरी चीजों से भी अधिक अनिवार्य बताया है. पाशा ने कहा, 'जब कुरान कहती है कि पैंगबर के बातें सुनो तो मुस्लिम लड़कीक को घर से बाहर निकलते वक्त हिजाब पहनने का भरोसा है, तो धर्म के आधार पर शिक्षण संस्थानों में भेदभाव करते हुए उसका प्रवेश प्रतिबंधित किया जा सकता है.' इसके साथ ही पाशा ने सिख छात्र-छात्राओं के पगड़ी और पटका पहनने का उदाहरण देते हुए कहा कि हिजाब पहने मुस्लिम लड़की को शिक्षण संस्थानों में प्रवेश नहीं देने का अर्थ एक धर्म को निशाना बनाना है. 

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अगली सुनवाई सोमवार को 
पाशा की इस दलील पर खंडपीठ ने कहा कि सिख धर्म में पांच के कानून सम्मत हैं और इनकी तुलना यथोचित नहीं है. इस पर पाशा ने फिर कहा कि पांच के की बाध्यता है, लेकिन पटका या पगड़ी को बाध्य नहीं करार दिया गया है. सिख धर्म 500 साल पुराना है और अगर उसके अनुरूप छात्र-छात्राएं पगड़ी और पटका धारण कर स्कूल जा सकते हैं, तो 1400 साल पुराने इस्लाम धर्म के तहत मुस्लिम लड़की हिजाब पहन कर स्कूल क्यों नहीं आ सकती है. पाशा ने आगे दलील देते हुए कहा कि इस्लाम का सच्चा अनुयायी दूसरे धर्म के रीति-रिवाजों में दखलंदाजी नहीं कर सकती है. इस्लाम को मामने वालों को कुरान के हिसाब से इस्लाम को मानने का अधिकार है. इस मामले में अगली सुनवाई अब सोमवार को होगी.