सामना ने संपादकीय में महाराष्ट्र में लगातार बढ़ रही आत्महत्याओं की घटना को लेकर महाराष्ट्र सरकार पर निशाना साधा और कहा है कांग्रेस के शासन में जब किसान आत्महत्याएं कर रहे थे तब ‘ये आत्महत्याएं नहीं सरकार द्वारा किया गया खून है, इस सरकार के हाथ किसानों के खून से रंगे हैं, सरकार की किसान विरोधी नीतियों की यह बलि है’ इस तरह के आक्रामक भाषण देने वाले लोग बाद में सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हुए मगर किसानों की आत्महत्याएं नहीं थमीं. उल्टे इस सरकार के कार्यकाल में आत्महत्याओं की संख्या बढ़ती ही जा रही है.
सामना में आगे लिखा गया है कि पिछले 11 महीनों में मराठवाड़ा में 855 तो विदर्भ में 743 किसानों ने आत्महत्या की है. कोई बिजली के तार हाथ में पकड़कर जान दे रहा है तो कोई खुद ही अपनी चिता जलाकर उसमें छलांग मार रहा है. कोई फांसी लगाकर तो कोई जहर पीकर अपनी जिंदगी समाप्त कर रहा है. दिल को दहलानेवाली किसानों की आत्महत्या की खबरें मराठवाड़ा, विदर्भ और उत्तर महाराष्ट्र से अब रोज आ रही हैं. मेहनत कर देश का पालन-पोषण करनेवाले किसानों की इस मौत को और कितने दिनों तक खुली आंखों से देखते रहें? किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र जैसा राज्य देश में पहले स्थान पर हो यह शर्मनाक है.
सामना ने संपादकीय में कहा है सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि पिछले 5 सालों में महाराष्ट्र में 11 हजार से अधिक किसानों ने मौत को गले लगाया है. ये आंकड़े बेचैन करनेवाले हैं. चुनाव की राजनीति को चूल्हे में जलाकर किसानों की आत्महत्याओं को रोकने के लिए युद्धस्तर पर कोई नीति क्यों नहीं बनाई जा रही? किसानों की आत्महत्या के मामले में देश में दूसरे नंबर पर होनेवाले मध्य प्रदेश की सत्ता को चुनाव में किसानों ने उखाड़ फेंका है. इसका एहसास अब तो सत्ताधारियों को रखना होगा. खोखले वादे और भाषणों से किसानों को जिंदगी नहीं दी जा सकती है.
सामना ने संपादकीय में कहा है देशभर के राजनीतिक दल और मीडिया के लोग पांच राज्यों के चुनावी नतीजों पर चर्चा करने और 24 घंटे विश्लेषण कवरेज देने में मशगूल हैं. निसंदेह ये ऐसा नतीजा है कि सरकार में बैठा दल चिंतन और मंथन करे. मगर राजनीति के इस कोलाहल में मराठवाड़ा से आई एक गंभीर खबर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. खबर ऐसी है कि जनवरी, 2018 से नवंबर 2018 तक इन 11 महीनों के भीतर मराठवाड़ा के 855 किसानों ने आत्महत्या की है.
सामना ने संपादकीय में कहा है किसानों के मौत को गले लगाने के कई कारण हैं. कर्ज का बोझ, सख्त नियमों के बंधन में अटका रखी कर्जमाफी, फसलों की निरंतर बर्बादी, फसलों को मिलनेवाला कौड़ियों का मोल, उत्पादन के लिए लगनेवाला खर्च भी न मिलने के कारण होनेवाली हताशा, परिवार की चिंता और कम बरसात के कारण बढ़ता सूखे का संकट! किसानों की बर्बादी पर लटका यह संकट किसी तरह से कम होता दिखाई नहीं दे रहा. कोई भी सरकार आए मगर वो हमारा जीवन नहीं बदल सकती, ऐसी निराशाजनक भावना किसानों के मन में बैठ गई है.
इस निराशा की भावना के कारण ही मराठवाड़ा, विदर्भ और महाराष्ट्र के अन्य क्षेत्रों में भी किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है. इन आत्महत्याओं को रोकेगा कौन? किसान मौत को गले न लगाएं, इसके लिए सरकार नामक प्रणाली निश्चित तौर पर क्या कर रही है? यह सरकार हमारी नहीं, ऐसी भावना किसानों के मन में क्यों पैदा हो रही है? सवाल असंख्य हैं. सरकार विरोधी नतीजों की पार्श्वभूमि पर ही सही लेकिन मीडिया के लोगों को चाहिए कि वो सत्तापक्ष के प्रतिनिधियों और सरकार के प्रमुखों से इस बारे में सवाल करें. इसमें किसी तरह की कोई राजनीति नहीं. किसान और उनकी आत्महत्याएं पनौती राजनीति का विषय कदापि नहीं हो सकते. जिन्हें हम बलि राजा कहते हैं, उन किसानों की जिंदगी और मौत का सवाल है.
सामना ने संपादकीय में कहा है कृषि उत्पादनों को डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देंगे, ऐसी सरकार की घोषणा थी मगर हकीकत में उत्पादन खर्च जितना भाव भी किसानों को नहीं मिल रहा. मंत्रालय में बैठनेवाली सरकार कृषि की इस सच्चाई को क्यों नहीं समझ रही? किसानों का भला करने की बजाय उन्हें नियमों की फांस में अटकाने का पाप सरकार ने किया है. कर्जमाफी मामले में सरकार ने हमें फंसाया है, ऐसी महाराष्ट्र के किसानों की भावना बन गई है. अब भी समय नहीं बीता है. किसानों के आक्रोश को अब तो समझो अन्यथा आज खुद को फांसी लगानेवाला किसान कल सरकार को भी फांसी लगा सकता है. चुनाव के ताजे नतीजे भी यही कह रहे हैं!
Source : News Nation Bureau