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सिंहासन के लिए जब-जब हुआ संघर्ष, जानें कैसे हुआ 'सुप्रीम' समाधान( Photo Credit : फाइल फोटो)
महाराष्ट्र (Maharashtra) में सत्ता को लेकर चल रहा संघर्ष सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) पहुंच गया. रविवार को शिवसेना-एनसीपी और कांग्रेस की याचिका पर सुनवाई हुई. महाराष्ट्र में राज्यपाल के फैसले को कटघरे में खड़ा किया गया और देवेंद्र फडणवीस सरकार से तुरंत फ्लोर टेस्ट देने के लिए सुप्रीम कोर्ट से मांग भी की गई. जिस पर फैसला शीर्ष अदालत सोमवार को सुनाएगी. महाराष्ट्र में सिंहासन के लिए संघर्ष की कहानी पहली नहीं जो देश की सबसे बड़ी अदालत में पहुंची है. इससे पहले भी कई मामले सुप्रीम कोर्ट में पहुंचे जिस पर 'सुप्रीम' फैसला सुनाकर मामले को सुलझाया गया.
1989 में कर्नाटक का 'नाटक' पहुंचा था सुप्रीम कोर्ट में
अगस्त 1988 और अप्रैल 1989 में कर्नाटक में जनता दल की सरकार थी जिसकी कमान एसआर बोम्मई के हाथ में थी. 1989 में वहां के तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने बहुमत खोने का हवाला देते हुए सरकार को बर्खास्त कर दिया था और राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था. एस आर बोम्मई को विधानसभा में बहुमत साबित करने से राज्यापल द्वारा इंकार करने के बाद मामला पहले कर्नाटक हाईकोर्ट पहुंचा, जहां पर रिट याचिका खारिज हो गई. इसके बाद राज्यपाल के फैसले के खिलाफ बोम्मई सुप्रीम कोर्ट की शरण में गए.
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इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला 5 साल बाद आया. एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ के मामले का फैसला 11 मार्च 1994 में आया. 9 जजों की संवैधानिक बेंच द्वारा सुनाए गए इस ऐतिहासिक फैसले की चर्चा आज भी की जाती है. इस फैसले में कोर्ट ने राज्य सरकार की मनमाने तरीके से बर्खास्तगी को खत्म कर दिया और दोबारा सरकार बनाने को कहा. शीर्ष अदालतन ने कहा कि राष्ट्रपति को राज्य सरकार को बर्खास्त करने का पूर्ण अधिकार नहीं है. 9 जजों की एक संवैधानिक बेंच फ्लोर टेस्ट की अवधारणा पेश की थी. संवैधानिक बेंच ने कहा था कि फ्लोर टेस्ट सदन में संख्याओं का निर्णायक प्रमाण है. इस दौरान पीठ ने अनुच्छेद 164(2) का उल्लेख करते हुए कहा था कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से राज्य की विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी. पीठ ने व्याख्या की कि बहुमत का अंतिम परीक्षण राजभवन में नहीं बल्कि सदन के पटल पर होता है.
साफ शब्दों में समझे तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी सरकार का बहुमत साबित करना हो या सरकार से समर्थन वापस लेना हो, इसके लिए विधानसभा में शक्ति परीक्षण ही एकमात्र तरीका है, न कि यह राज्यपाल की व्यक्तिगत राय से फैसला हो.
फरवरी 1998 में यूपी का घमासान पहुंचा था सुप्रीम कोर्ट
21 फरवरी 1998 यूपी के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को रात में 10.30 बजे मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी. बता दें कि उस वक्त जगदंबिका पाल कल्याण सिंह की ही सरकार में ट्रांसपोर्ट मंत्री थे. लेकिन विपक्षी पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बना ली. रात में ही कल्याण सिंह हाईकोर्ट पहुंच गए. जिसके बाद हाईकोर्ट ने अगले दिन राज्यपाल के आदेश पर रोक लगा दी और कल्याण सरकार को फिर से बहाल कर दिया. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंचा था. 24 फरवरी, 1998 को सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में 48 घंटे के भीतर बहुमत साबित करने का आदेश दिया था. 26 फरवरी को एक बार फिर शक्ति प्रदर्शन हुआ. इसमें कल्याण सिंह की जीत हुई थी.
2005 में बिहार की जंग को सुलझाया था सुप्रीम कोर्ट ने
जनता दल यूनाइडेट (जेडीयू) के नेता नीतीश कुमार सरकार बनाने का दावा करने वाले थे, लेकिन राज्यपाल उन्हें मौका देने से इंकार करते हुए बिहार विधानसभा को 23 मई 2005 को मध्यरात्रि भंग कर दी थी. यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. अक्टूब 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार विधानसभा को भंग करने के फ़ैसले को असंवैधानिक ठहरा दिया था. सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि राज्यपाल बूटा सिंह ने असंवैधानिक निर्णय लेते हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल को गुमराह किया. संविधान पीठ ने बहुमत से (3:2) दिए गए इस निर्णय में कहा है कि राज्यपाल का उद्येश्य एक दल (जनता दल यूनाइटेड) को सरकार बनाने का दावा करने से रोकना था. हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोबारा चुनाव को रोकने से इंकार कर दिया था.
झारखंड का मामला 2005 में पहुंचा था सुप्रीम कोर्ट
झारखंड में सत्ता की जंग 2005 में सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा जब अर्जुन मुंडा झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) प्रमुख शिबू सोरेन को राज्य का मुख्यमंत्री बनाने के राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी थी. पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने राज्यपाल के फैसले के खिलाफ याचिका दायर की थी. सुप्रीम कोर्ट ने 9 मार्च, 2005 को झारखंड विधानसभा को बहुमत साबित करने का आदेश दिया था. 11 मार्च 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट करने के लिए आदेश जारी किया था. ताकि ये साबित हो कि सदन में किस राजनीतिक गठबंधन के बीच सदन में बहुमत है और कौन मुख्यमंत्री के लिए दावा कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद हुए फ्लोर टेस्ट में अर्जुन मुंडा ने विश्वास मत हासिल कर लिया था और सीएम पद पर विराजमान हुए थे.
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कर्नाटक का नाटक 18 मई 2018 में फिर से सुप्रीम कोर्ट पहुंचा
कांग्रेस-जेडीएस सरकार गिरने के बाद राज्यपाल वजूभाई वाला बीजेपी को सरकार बनाने का न्यौता दिया. जिसके बाद बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. कांग्रेस और जेडीएस ने इसका विरोध किया है और सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. जिसके बाद 18 मई, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए 19 मई शाम 4 बजे यानी मुश्किल से 24 घंटे के भीतर बहुमत साबित करने का आदेश दिया था. कोर्ट ने कहा था कि आखिरकार यह एक नंबर-गेम है और पुडिंग का प्रमाण फ्लोर टेस्ट में है. हालांकि बीएस येदुरप्पा सरकार ने फ्लोर टेस्ट पास कर लिया.
14 मार्च 2017 में पर्रिकर सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था मामला
गोवा में मनोहर पर्रिकर को सीएम बनाने के खिलाफ कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शपथ ग्रहण पर रोक लगाने से इंकार कर दिया और 16 मार्च को फ्लोर टेस्ट करवाने का आदेश दिया.
इसी तरह अरुणाचल प्रदेश में जुलाई, 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने के केंद्र के फ़ैसले को पलट दिया था. अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक गतिरोध का हवाला देते हुए केंद्र सरकार ने 24 जनवरी, 2016 को वहां राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी थी.
27 मार्च 2016 उत्तराखंड का मामला भी पहुंचा था शीर्ष अदालत में
उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार के पास बहुमत नहीं होने की बात कहते हुए राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था. कांग्रेस के 9 विधायकों की बग़ावत के बाद मुश्किलों में घिरी हरीश रावत सरकार को 28 मार्च को बहुमत साबित करना था. लेकिन इससे पहले राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. जिसके बाद मामला बड़ी अदालत पहुंचा. मई, 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटाते हुए हरीश रावत की सरकार फिर से बहाल कर दी थी.