अपनी और अपने परिजनों की जान बचाने के लिये आज से तीन दशक पहले अपने घरों से पलायन के लिये मजबूर हुये कश्मीर पंडित तीन दशक से भी अधिक समय से न्याय का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। कश्मीरी पंडितों के लिये 19 जनवरी 1990 की रात ऐसी है, जिसे वे ताउम्र नहीं भूल सकते हैं।
हर साल कश्मीर को लेकर व्यर्थ की बहसें होती हैं, आभासी दुनिया में बहसबाजी होती है तथा टीवी चैनलों पर आरोप और प्रत्यारोपों का दौर चलता है कि नहीं इसके लिये जगमोहन जिम्मेदार थे, तो नहीं इसके लिये फारुख अब्दुल्ला जिम्मेदार थे। ये सभी बहसें एक दिन में फिर अतीत का हिस्सा बनकर रह जाती हैं।
इसी के बीच 11 मार्च को विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित द कश्मीर फाइल्स रिलीज होती है और सिल्वर स्क्रीन पर धूम मचा देती है।
इसके बाद एक बार फिर चचार्ओं का एक दौर शुरू हो जाता है लेकिन इन चर्चाओं से एक मुख्य बिंदु अब भी नदारद होता है और वह है- न्याय। लेकिन इस बार कुछ अलग था। फिल्म ने देश की सोई हुई चेतना को झकझोर कर रख दिया।
इस फिल्म में कश्मीरी पंडितों के पलायन को बेहद बेबाक तरीके से दिखाया गया है। निर्देशक अग्निहोत्री का कहना है कि आतंकवाद के आगमन के बाद कश्मीर पर कई फिल्में बनायी गयीं लेकिन उनमें आमतौर पर आतंकवाद को रोमांटिक रूप दिय किया और उन्होंने कभी भी कश्मीरी हिंदुओं पर हुये अत्याचार की बात नहीं की।
इसमें कोई शक नहीं कि फिल्म ने देशवासियों को यह दिखाया कि कश्मीर की हसीं वादियों में 80 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरूआत में क्या-क्या हुआ था। लेकिन क्या कोई फिल्म आतंकवाद प्रभावित अल्पसंख्यक समुदाय को न्याय दिला पायेगी? अग्निहोत्री ने अपनी भूमिका निभा दी है लेकिन अब गेंद सरकार के पाले में है और यह हमेशा से सरकार के ही पाले में थी।
इस घटना को तीन दशक से अधिक समय बीत चुका है जब कश्मीर के मूल निवासियों को क्रूर अत्याचारों का सामना करना पड़ा। तो अब इन मामलों की पड़ताल क्यों न की जाये?
आईएएनएस ने इसी मसले को लेकर कुछ कानूनविदों से बात की जिससे कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने का रास्ता सुगम हो सके ।
सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, यह एक तथ्य है कि कश्मीरी पंडितों का अपहरण किया गया, उन पर हमला किया गया, बर्बर तरीके से बलात्कार किया गया, बेरहमी से हत्या की गयी और उनका नरसंहार हुआ। इस घटना को अगर 30 साल बीत गये तो क्या होगा? अब जहां तक न्याय के अधिकार का सवाल है, तो इसकी कोई समय सीमा नहीं होती है।
उपाध्याय ने आईएएनएस से कहा कि कश्मीर में हिंदू नरसंहार के पीड़ितों को पहले उस राज्य के प्रमुख यानी जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से संपर्क करना चाहिये। उन्होंने कहा, यह अधिक उपयुक्त होगा यदि पीड़ित सामाजिक कार्यकतार्ओं या नेताओं के बजाय सीधे एलजी से संपर्क करें।
उपाध्याय ने कहा कि कश्मीरी पंडितों को जम्मू-कश्मीर एलजी से एनआईए से इस घटना की जांच कराने की मांग करनी चाहिये। उन्होंने कहा, मेरा मानना है कि यह सबसे प्रभावी जांच होगी क्योंकि वहां बड़े पैमाने पर हिंसा हो रही है और विदेशी फंडिंग हो रही है।
उपाध्याय ने कहा कि कश्मीरी पंडित अब देश के अलग-अलग हिस्से में बस गये हैं और अगर वे एलजी से मिलने में सक्षम नहीं हैं तो वे कम से कम एक मेल भेज सकते हैं। उन्होंने कहा, अगर एलजी उन्हें जवाब नहीं देते हैं या उनके अनुरोध पर कार्रवाई नहीं करते हैं, तो उन्हें सीधे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिये। उन्होंने कहा कि अगर हाईकोर्ट भी उन्हें कोई राहत नहीं देता है तो वे सुप्रीम कोर्ट का रुख कर सकते हैं।
उपाध्याय ने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट में कश्मीर नरसंहार का मामला बिना फीस के लड़ने के लिये तैयार हैं।
उपाध्याय कहते हैं कि पंडित समुदाय के प्रत्येक सदस्य को शारीरिक क्रूरता का सामना नहीं करना पड़ा लेकिन फिर भी पलायन का उन पर अलग-अलग प्रभाव पड़ा। उन्होंने कहा,चोट हमेशा शारीरिक नहीं होती है बल्कि यह सामाजिक, वित्तीय और मानसिक आघात भी भी सकता है।
उन्होंने कहा, यहां तक कि जान से मारने की धमकी देना भी भारतीय दंड संहिता की धारा 506 (आपराधिक धमकी के लिये सजा) के तहत एक अपराध है। वहां से सभी हिंदू पलायन कर गये क्योंकि उन्हें धमकी दी गयी थी।
लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय का कोई सदस्य 30 साल बाद सबूत कैसे जुटायेगा?
उपाध्याय इस पर कहते हैं, देखें साक्ष्य दो प्रकार के होते हैं: एक भौतिक साक्ष्य है और दूसरा परिस्थितिजन्य साक्ष्य है। न्याय करना अधिक महत्वपूर्ण हैं। अदालतें परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर भी न्याय कर सकती हैं। नार्को पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग को लेकर कोई कानून नहीं है लेकिन इसे एक असाधारण मामला मानते हुये अदालत आरोपियों का नार्को पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग टेस्ट कराने का निर्देश दे सकती है और उसके परिणाम के आधार पर अदालत फैसला सुना सकती है।
दिल्ली के एक अन्य वकील विनीत जिंदल ने आईएएनएस से बात करते हुये कहा कि पंडित समुदाय के लोग, जो अब विस्थापित हो चुके हैं और वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं, वे भी जीरो एफआईआर के विकल्प का इस्तेमाल कर सकते हैं।
एक जीरो एफआईआर में सीरियल नंबर नहीं होता है, इसके बजाय इसे 0 नंबर दिया जाता है। यह उस क्षेत्र की परवाह किये बिना पंजीकृत होता है, जहां अपराध किया गया है। कोई भी पुलिस स्टेशन जीरो एफआईआर दर्ज करने के बाद मामले को उस क्षेत्राधिकार वाले पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित कर देता है, जहां अपराध हुआ है।
अधिवक्ता जिंदल, जो एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, उन्होंने अभी एक दिन पहले राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद को पत्र लिखकर कश्मीरी पंडितों के नरसंहार से जुड़े मामलों को फिर से खोलने और अब तक दर्ज मामलों की पूरी जांच के लिये एक विशेष जांच दल गठित करने की मांग की थी।
जिंदल ने आईएएनएस से कहा, सरकार को उन पीड़ितों को एक मंच प्रदान करना चाहिये जो उस समय की प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण उस विशेष समय में अपने मामलों की रिपोर्ट करने में असमर्थ थे।
उन्होंने कहा कि 215 प्राथमिकी दर्ज की गयी हैं और मामलों की जांच जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा की गयी है लेकिन जांच से कोई ठोस परिणाम नहीं निकला। उन्होंने कहा, इसलिए, यह निश्चित रूप से एक संदेह पैदा करता है कि इन प्राथमिकियों के लिये किस तरह की जांच की गयी। केंद्र सरकार भी पीड़ितों के परिवारों के लिये न्याय सुनिश्चित करने में विफल रही।
इस बीच पंडित समुदाय हालांकि, इस तथ्य से संतुष्ट है कि कम से कम उनके उत्पीड़न की कहानी अब लोगों से छिपी नहीं है लेकिन फिर भी न्याय का इंतजार अभी बाकी है।
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Source : IANS