विपक्ष का साथ छोड़ नीतीश ने क्यों दिया BJP के राष्ट्रपति उम्मीदवार कोविंद को समर्थन!
बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद विपक्षी खेमे में नीतीश कुमार पहले वैसे नेता थे, जिन्होंने खुलकर उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया था।
नई दिल्ली:
बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद विपक्षी खेमे में नीतीश कुमार पहले वैसे नेता थे, जिन्होंने खुलकर उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया था।
कुमार ने तब अपने मन की बात कही, जब कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने 23 जून को होने वाली बैठक से पहले कोविंद को समर्थन दिए जाने के बारे में कुछ भी कहने से बच रहे थे। वहीं तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम और सीपीआई ने तो खुलकर कोविंद के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा किए जाने की वकालत की थी।
दिल्ली में सोनिया गांधी के नेतृत्व में 23 जून को होने वाली विपक्ष की बैठक से पहले नीतीश कुमार ने अपने पार्टी विधायकों और सांसदों की बैठक से पहले कोविंद को समर्थन दिए जाने का ऐलान कर दिया। जबकि बिहार की महागठबंधन सरकार की सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस ने इस बारे में अपने पत्ते नहीं खोले हैं।
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यह पहली बार नहीं है जब कुमार ने महागठबंधन के विपरीत रुख अख्तियार किया हो। इससे पहले वह नोटबंदी जैसे मुद्दे पर केंद्र सरकार का खुलकर साथ दे चुके हैं, जिसका कांग्रेस और आरजेडी पुरजोर विरोध कर रहे थे।
कुमार का यह फैसला एक बार फिर से बिहार में महागठबंधन के सियासी भविष्य को लेकर अटकलों को हवा दे सकता है लेकिन उनका यह फैसला बेहद सूझ-बूझ के साथ राजनीति दूरंदेशी की ओर इशारा करता है।
1. बिहार की राजनीति में कुमार का कोई मजबूत और स्थायी वोट बैंक नहीं है, बल्कि उनकी एकमात्र राजनीतिक पूंजी उनकी छवि है। कुमार महादलित समुदाय को अपने वोट बैंक के तौर पर विकसित करने की कोशिश की है, जिसमें वह कुछ हद तक कामयाब भी रहे हैं।
कोविंद दलित है और उनका विरोध बिहार में महादलित की राजनीति के खिलाफ जा सकता है, जिस पर नीतीश कुमार अभी तक भरोसा करते आए हैं।
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2. दूसरा अहम कारण कुमार की राजनीतिक छवि से जुड़ा है। कुमार राजनीति में वैसे व्यक्ति की छवि बना चुके हैं जो अक्सर दिल की बात करता है। नोटबंदी का फैसला उन्हें सही लगा और उन्होंने गठबंधन धर्म की परवाह किए बिना उसकी तारीफ कर दी।
कोविंद उन्हें बेदाग लगे और उन्होंने समर्थन देने का फैसला कर लिया। वैसे भी विपक्षी दल अभी तक कोविंद के विरोध का कोई जायज तर्क नहीं खोज सके हैं। 'धर्मनिरपेक्षता' बनाम 'सांप्रदायिकता' के नजरिये से भी विपक्षी दलों के पास कोविंद के विरोध की ठोस जमीन नहीं है क्योंकि उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई संबंध नहीं रहा है।
3. महागठबंधन की जीत के बाद अब बिहार की राजनीति में काफी कुछ तेजी से बदल रहा है। बीजेपी, कुमार को साथ आने का खुला ऑफर दे चुकी है वहीं सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी आरजेडी के मुखिया लालू और उनका परिवार बेनामी संपत्ति के मामले में फंसता नजर आ रहा है। चारा घोटाले में सुप्रीम कोर्ट पहले ही लालू को झटका दे चुका है।
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आरजेडी के कई विधायक लगातार नीतीश कुमार के खिलाफ बयानबाजी करते रहे हैं, जिसे उनकी पार्टी चेतावनी देकर नजरअंदाज करती आई है। एक सधे हुए नेता की तरह अभी तक कुमार बिहार की राजनीति में 'चेक एंड बैलेंस' बनाने में सफल रहे हैं।
यही वजह है कि उन्होंने बीजेपी के अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को विशुद्ध स्टंटबाजी करार देते हुए इसमें शामिल होने से मना कर दिया तो वहीं कोविंद को विपक्ष की बैठक से पहले समर्थन दिए जाने का ऐलान कर विपक्ष को सकते में डाल दिया।
यह सही है कि उन्होंने अभी तक बीजेपी के साथ आने के ऑफर को हां नहीं कहा है लेकिन ऐसे कई मौके आए हैं जब उन्होंने विपक्ष से खुद को अलग कर लिया। सोनिया गांधी की तरफ से बुलाई गई बैठक को छोड़कर ठीक अगले दिन मॉरीशस के प्रधानमंत्री की आगवानी में मोदी के दिए गए भोज में शामिल होकर कुमार ऐसा कर चुके हैं।
4. बतौर राज्यपाल रहते हुए कोविंद ने कभी भी कुमार के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं अटकाया। शराबबंदी पर जब कुमार देश भर में आलोचना का शिकार हो रहे थे, तब भी कोविंद ने बिहार सरकार के शराबबंदी से जुड़े अध्यादेश पर बिना कोई सवाल हस्ताक्षर कर दिया।
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कोविंद ने बिहार सरकार के किसी भी फैसले को लेकर कोई आपत्ति नहीं जताई। पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भी ऐसे एक-दो मौके आए जब राज्यपाल ने अखिलेश सरकार के फैसलों पर सवाल उठाए।
दिल्ली में भी अरविंद केजरीवाल की सरकार आए दिन उप-राज्यपाल के फैसलों को लेकर केंद्र सरकार से टकराती रहती है। लेकिन इन सबके बीच कुमार को बिहार के प्रशासनिक काम-काज में किसी तरह की दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा।
संवैधानिक तौर पर राज्यपाल केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है और कुमार को बिहार में सरकार चलाने के दौरान ऐसे किसी दखल का सामना नहीं करना पड़ा।
कुमार ने राष्ट्रपति पद के लिए दलित उम्मीदवार को खुला समर्थन देकर यह साफ संदेश देने की कोशिश की है कि वह 'सही' और 'उचित' फैसले को महज 'गठबंधन की राजनीति' के चश्मे से देखने की मजबूरी से बंधे हुए नहीं है। कुमार की यही छवि उनकी राजनीति पूंजी है, जिसे उन्होंने इस बार भी दांव पर नहीं लगाया।
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