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विदाई संबोधन में राष्ट्रपति कोविंद ने देशभर के युवाओं से की ये खास अपील, यहां पढ़ें पूरा भाषण

मौजूदा राष्ट्रपति का कार्यकाल खत्म होने से पहले रविवार को उन्हेंने देश को आखिरी बार संबोधित किया. इस दौरान उन्होंने कहा कि  मेरे जीवन के सबसे यादगार पलों में से मेरे कार्यकाल के दौरान मेरे घर का दौरा करना और कानपुर में अपन

Updated on: 24 Jul 2022, 08:07 PM

highlights

  • 25 जुलाई को खत्म हो रहा है राष्ट्रपति कोविंद का कार्यकाल
  • राष्ट्रपति ने देश के नाम आखिरी संबोधन में साझा किए अनुभव
  • युवाओं को अपने गांव, कस्बे व शिक्षकों से की जुड़े रहने की अपील

नई दिल्ली:

मौजूदा राष्ट्रपति का कार्यकाल कल यानी 25 जुलाई को खत्म हो रहा है. इससे पहले रविवार को उन्हेंने देश को आखिरी बार संबोधित किया. इस दौरान उन्होंने कहा कि 
मेरे जीवन के सबसे यादगार पलों में से मेरे कार्यकाल के दौरान मेरे घर का दौरा करना और कानपुर में अपने शिक्षकों के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेना है. उन्होंने कहा कि हमारी जड़ों से जुड़ाव भारत का सार रहा है. मैं युवा पीढ़ी से अनुरोध करूंगा कि वे अपने गांव या कस्बे, अपने स्कूलों और शिक्षकों से जुड़े रहने की इस परंपरा को जारी रखें. यदि परौंख गांव के रामनाथ कोविंद आज आपको संबोधित कर रहे हैं, तो यह हमारी जीवंत लोकतांत्रिक संस्थाओं की अंतर्निहित शक्ति के कारण ही है. मैं देश भर में अपनी यात्राओं के दौरान नागरिकों के साथ अपनी बातचीत से प्रेरित और सक्रिय हुआ हूं. मुझे समाज के सभी वर्गों से पूरा सहयोग, समर्थन और आशीर्वाद मिला. मैं सभी साथी नागरिकों और आपके चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति अपनी गहरी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं. 

आज से पांच साल पहले, आप सबने मुझ पर अपार भरोसा जताया था और अपने निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के माध्यम से मुझे भारत के राष्ट्रपति के रूप में चुना था. आज मेरा कार्यकाल पूरा हो रहा है. इस अवसर पर मैं आप सभी के साथ कुछ बातें साझा करना चाहता हूं.  सबसे पहले, मैं आप सभी देशवासियों के प्रति तथा आपके जन-प्रतिनिधियों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूं. पूरे देश में अपनी यात्राओं के दौरान, नागरिकों के साथ हुए संवाद और संपर्क से मुझे निरंतर प्रेरणा मिलती रही. छोटे-छोटे गांवों में रहने वाले हमारे किसान और मजदूर भाई-बहन, नई पीढ़ी के जीवन को संवारने वाले हमारे शिक्षक, हमारी विरासत को समृद्ध बनाने वाले कलाकार, हमारे देश के विभिन्न आयामों का अध्ययन करने वाले विद्वान, देश की समृद्धि बढ़ाने वाले उद्यमी, देशवासियों की सेवा करने वाले डॉक्टर व नर्स, राष्ट्र-निर्माण में संलग्न वैज्ञानिक व इंजीनियर, देश की न्याय व्यवस्था को योगदान देने वाले न्यायाधीश व अधिवक्ता, प्रशासन तंत्र को सुचारु रूप से चलाने वाले सिविल सर्वेंट्स, हर वर्ग को विकास से जोड़ने में सक्रिय हमारे सामाजिक कार्यकर्ता, भारतीय समाज में आध्यात्मिक प्रवाह को बनाए रखने वाले सभी पंथों के आचार्य व गुरुजन आप सभी ने मुझे अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में भरपूर सहयोग दिया है. संक्षेप में कहूं तो समाज के सभी वर्गों का मुझे पूरा सहयोग, समर्थन व आशीर्वाद मिला है.

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मेरे मनो-मस्तिष्क में वे सभी क्षण विशेष रूप से अंकित रहेंगे, जब मेरी मुलाकात अपनी सेनाओं, अर्धसैनिक बलों, तथा पुलिस के बहादुर जवानों से होती थी. उन सभी में देशप्रेम की अद्भुत भावना देखने को मिलती है. अपनी विदेश यात्राओं के दौरान, जब भी प्रवासी भारतीयों के साथ मेरा मिलना हुआ, हर बार मुझे मातृभूमि के प्रति उनके गहरे प्यार और अपनेपन का एहसास हुआ. देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार समारोहों के दौरान, मुझे अनेक असाधारण प्रतिभाओं से मिलने का अवसर मिला. वे सभी पूरी लगन, अटूट समर्पण और दृढ़ निष्ठा के साथ एक बेहतर भारत के निर्माण में सक्रिय हैं. इस प्रकार, अनेक देशवासियों से मिलने के बाद मेरा यह विश्वास और भी दृढ़ हुआ कि हमारे निष्ठावान नागरिक ही वास्तविक राष्ट्र-निर्माता हैं. और वे सभी भारत को बेहतर बनाने के लिए प्रयासरत हैं. ऐसे सभी निष्ठावान देशवासियों के हाथों में हमारे महान देश का भविष्य सुरक्षित है.

अपने इन अनुभवों से गुजरते हुए अक्सर मुझे अपना बचपन भी याद आता रहा है कि किस तरह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएं हमारे व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती रहीं. जब अपने छोटे से गांव में, एक साधारण बालक के नजरिए से मैं जीवन को समझने की कोशिश कर रहा था, तब देश को आजादी हासिल किए हुए कुछ ही साल हुए थे. देश के पुनर्निर्माण के लिए लोगों में एक नया जोश दिखाई देता था; उनकी आंखों में नए सपने थे. मेरे दिलो-दिमाग में भी एक धुंधली सी कल्पना उभर रही थी कि एक दिन शायद मैं भी अपने देश के निर्माण में भागीदारी कर सकूंगा. कच्चे घर में गुजर-बसर करने वाले एक परिवार के मेरे जैसे साधारण बालक के लिए हमारे गणतंत्र के सर्वोच्च संवैधानिक पद के बारे में कोई भी जानकारी होना कल्पना से परे था. लेकिन यह भारत के लोकतंत्र की ताकत है कि इसमें हर नागरिक के लिए ऐसे रास्ते खुले हैं जिनपर चलकर वह देश की नियति को संवारने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. कानपुर देहात जिले के परौंख गांव के अति साधारण परिवार में पला-बढ़ा वह राम नाथ कोविन्द आज आप सभी देशवासियों को संबोधित कर रहा है, इसके लिए मैं अपने देश की जीवंत लोकतांत्रिक व्यवस्था की शक्ति को शत-शत नमन करता हूं.


चूंकि मैंने अपने गांव का उल्लेख किया है, तो मैं इस बात का भी उल्लेख करना चाहूंगा कि राष्ट्रपति के कार्यकाल के दौरान अपने पैतृक गांव का दौरा करना और अपने कानपुर के विद्यालय में वयोवृद्ध शिक्षकों के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेना मेरे जीवन के सबसे यादगार पलों में हमेशा शामिल रहेंगे. इसी साल प्रधानमंत्री जी भी मेरे गाँव परौंख आए और उन्होंने मेरे गांव की धरती का मान बढ़ाया. अपनी जड़ों से जुड़े रहना भारतीय संस्कृति की विशेषता है. मैं युवा पीढ़ी से यह अनुरोध करूंगा कि अपने गाँव या नगर तथा अपने विद्यालयों तथा शिक्षकों से जुड़े रहने की इस परंपरा को आगे बढ़ाते रहें.

आजकल सभी देशवासी 'आजादी का अमृत महोत्सव' मना रहे हैं. अगले महीने हम सब भारत की आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाएंगे. हम 25 वर्ष की अवधि के उस 'अमृत काल' में प्रवेश करेंगे, जो स्वतंत्रता के शताब्दी वर्ष अर्थात 2047 में पूरा होगा. ये विशेष ऐतिहासिक वर्ष हमारे गणतंत्र के प्रगति-पथ पर मील के पत्थर की तरह हैं. हमारे लोकतन्त्र की यह विकास यात्रा, देश की स्वर्णिम संभावनाओं को कार्यरूप देकर विश्व समुदाय के समक्ष एक श्रेष्ठ भारत को प्रस्तुत करने की यात्रा है.
आधुनिक काल में, हमारे देश की इस गौरव यात्रा का आरंभ ब्रिटिश हुकूमत के दौरान राष्ट्रवादी भावनाओं के जागरण और स्वाधीनता संग्राम के साथ हुआ. उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान पूरे देश में पराधीनता के विरुद्ध अनेक विद्रोह हुए. देशवासियों में नयी आशा का संचार करने वाले ऐसे विद्रोहों के अधिकांश नायकों के नाम भुला दिए गए थे. अब उनकी वीर-गाथाओं को आदर सहित याद किया जा रहा है. उन्नीसवीं सदी के अंतिम तथा बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में नवीन जन-चेतनाओं का संचार हो रहा था और स्वाधीनता संग्राम की अनेक धाराएँ प्रवाहित हो रही थीं.


वर्ष 1915 में जब गांधीजी स्वदेश लौटे, उस समय देश में राष्ट्रीयता की भावना और भी प्रबल हो रही थी. अनेक महान जननायकों की उज्ज्वल आकाश-गंगा का जैसा प्रकाश हमारे देश को बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में प्राप्त हुआ, वह विश्व इतिहास में अतुलनीय है. जहां एक ओर आधुनिक युग के एक 'ऋषि' की तरह, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, हमारी सांस्कृतिक विरासत से देशवासियों को फिर से जोड़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर समानता के आदर्श की ऐसी पुरजोर वकालत कर रहे थे जैसा अधिकांश विकसित देशों में भी दिखाई नहीं दे रहा था. तिलक और गोखले से लेकर भगत सिंह और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तक; जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और श्यामा प्रसाद मुकर्जी से लेकर सरोजिनी नायडू और कमलादेवी चट्टोपाध्याय तक - ऐसी अनेक विभूतियों का केवल एक ही लक्ष्य के लिए तत्पर होना, मानवता के इतिहास में अन्यत्र नहीं देखा गया है.

मेरे मस्तिष्क में और भी कई विभूतियों के नाम उभर रहे हैं, लेकिन मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि स्वाधीन भारत की विभिन्न परिकल्पनाओं से सम्पन्न अनेक महान नेताओं ने भारत की स्वाधीनता के लिए त्याग और बलिदान के अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किए. इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्वाधीनता संग्राम पर गांधीजी के परिवर्तनकारी विचारों का प्रभाव सबसे अधिक पड़ा और उस दौरान उन्होंने कोटि-कोटि देशवासियों की जीवनधारा को नयी दिशा दे दी.

लोकतन्त्र के जिस पथ पर हम आज आगे बढ़ रहे हैं, उसकी रूप-रेखा हमारी संविधान सभा द्वारा तैयार की गयी थी. उस सभा में पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने वाले अनेक महानुभावों में हंसाबेन मेहता, दुर्गाबाई देशमुख, राजकुमारी अमृत कौर तथा सुचेता कृपलानी सहित 15 महिलाएं भी शामिल थीं. संविधान सभा के सदस्यों के अमूल्य योगदान से निर्मित भारत का संविधान, हमारा प्रकाश-स्तम्भ रहा है और इसमें निहित आदर्श, चिरकाल से संरक्षित भारतीय जीवन-मूल्यों का हिस्सा रहे हैं. संविधान को अंगीकृत किए जाने से एक दिन पहले संविधान सभा में अपने समापन वक्तव्य में, डॉक्टर आम्बेडकर ने लोकतंत्र के सामाजिक और राजनीतिक आयामों के बीच के अंतर को स्पष्ट किया था. उन्होंने कहा था कि हमें केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए. मैं उनके शब्दों को आप सबके साथ साझा करता हूं. उन्होंने कहा था, "हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को एक सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए. राजनीतिक लोकतंत्र टिक नहीं सकता यदि वह सामाजिक लोकतंत्र पर आधारित न हो. सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है जीवन का वह तरीका जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देता है. स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के इन सिद्धांतों को एक त्रिमूर्ति के अलग-अलग हिस्सों के रूप में नहीं देखना चाहिए. उनकी त्रिमूर्ति का वास्तविक अर्थ यह है कि उनमें से किसी भी हिस्से को एक-दूसरे से अलग करने पर लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है.

जीवन-मूल्यों की यह त्रिमूर्ति आदर्श-युक्त, उदारता-पूर्ण और प्रेरणादायक है. इस त्रिमूर्ति को अमूर्त अवधारणा मात्र समझना गलत होगा. केवल आधुनिक ही नहीं बल्कि हमारा प्राचीन इतिहास भी इस बात की गवाही देता है कि वे तीनों जीवन-मूल्य हमारे जीवन की सच्चाई हैं; उन्हें हासिल किया जा सकता है, और वस्तुत: उन्हें विभिन्न युगों में हासिल किया भी गया है. हमारे पूर्वजों और हमारे आधुनिक राष्ट्र-निर्माताओं ने अपने कठिन परिश्रम और सेवा भावना के द्वारा न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता के आदर्शों को चरितार्थ किया था. हमें केवल उनके पदचिह्नों पर चलना है और आगे बढ़ते रहना है.

सवाल उठता है कि आज के संदर्भ में एक सामान्य नागरिक के लिए ऐसे आदर्शों का क्या अर्थ है? मेरा मानना ​​है कि उन आदर्शों का प्रमुख लक्ष्य सामान्य व्यक्ति के लिए सुखमय जीवन का मार्ग प्रशस्त करना है. इसके लिए, सबसे पहले सामान्य लोगों की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी की जानी चाहिए. अब संसाधनों की कमी नहीं है. हर परिवार के पास बेहतर आवास, तथा पीने के पानी और बिजली की सुविधा उपलब्ध हो – इस दिशा में हम काम कर रहे हैं. यह बदलाव, विकास की बढ़ती हुई गति तथा भेदभाव से पूर्णत: मुक्त सुशासन द्वारा ही संभव हो सका है.

मूलभूत आवश्यकताओं को उपलब्ध कराने के बाद, यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक नागरिक अपनी क्षमताओं का उपयोग करते हुए खुशी के अवसर तलाशे तथा अपने नितांत निजी गुणों का समुचित उपयोग करते हुए अपनी नियति का निर्माण करे. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए शिक्षा ही मुख्य साधन है. मेरा मानना ​​है कि ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ युवा भारतीयों के लिए अपनी विरासत से जुड़ने और इक्कीसवीं सदी में अपने पैर जमाने में बहुत सहायक सिद्ध होगी. उनके विकासमान भविष्य के लिए अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं अनिवार्य हैं. कोविड की वैश्विक महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे में और अधिक सुधार की आवश्यकता को रेखांकित किया है. मुझे खुशी है कि सरकार ने इस कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाते हुए हमारे देशवासी सक्षम बन सकते हैं और आर्थिक सुधारों का लाभ लेकर अपने जीवन निर्माण के लिए सर्वोत्तम मार्ग अपना सकते हैं. 21वीं सदी को भारत की सदी बनाने के लिए हमारा देश सक्षम हो रहा है, यह मेरा दृढ़ विश्वास है.
प्यारे देशवासियो

अपने कार्यकाल के पांच वर्षों के दौरान, मैंने अपनी पूरी योग्यता से अपने दायित्वों का निर्वहन किया है. मैं डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, डॉक्टर एस. राधाकृष्णन और डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम जैसी महान विभूतियों का उत्तराधिकारी होने के नाते बहुत सचेत रहा हूं. जब मैंने राष्ट्रपति भवन में प्रवेश किया था, तब मेरे तत्कालीन पूर्ववर्ती, श्री प्रणब मुखर्जी ने भी मेरे कर्तव्यों के बारे में मुझे बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव दिए. फिर भी, जब कभी मुझे किसी तरह का संशय हुआ, तब मैंने गांधीजी का और उनके द्वारा सुझाए गए मूल-मंत्र का सहारा लिया. गांधीजी की सलाह के मुताबिक सबसे अच्छा मार्गदर्शक-सिद्धान्त यह था कि हम सबसे गरीब आदमी के चेहरे को याद करें और खुद से यह सवाल पूछें कि हम जो कदम उठाने जा रहे हैं, क्या वह उस गरीब के लिए सहायक होगा? मैं गांधीजी के सिद्धांतों पर अपने अटूट विश्वास को दोहराते हुए आप सबसे यह आग्रह करूंगा कि आप प्रतिदिन, कुछ मिनटों के लिए ही सही, गांधीजी के जीवन और शिक्षाओं पर अवश्य विचार करें.

हम सबके लिए माता की तरह पूज्य प्रकृति, गहरी पीड़ा से गुजर रही है. जलवायु परिवर्तन का संकट हमारी धरती के भविष्य के लिए गंभीर खतरा बना हुआ है. हमें अपने बच्चों की खातिर अपने पर्यावरण, अपनी जमीन, हवा और पानी का संरक्षण करना है. अपनी दिनचर्या में तथा रोज़मर्रा की चीजों का इस्तेमाल करते समय हमें अपने पेड़ों, नदियों, समुद्रों और पहाड़ों के साथ-साथ अन्य सभी जीव-जंतुओं की रक्षा के लिए बहुत सावधान रहने की जरूरत है. प्रथम नागरिक के रूप में, यदि अपने देशवासियों को मुझे कोई एक सलाह देनी हो तो मैं यही सलाह दूंगा. अपने वक्तव्य का समापन करते हुए मैं एक बार फिर सभी देशवासियों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूं. भारत माता को सादर नमन करते हुए मैं आप सभी के उज्ज्वल भविष्य की मंगल कामना करता हूं.