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PM नरेंद्र मोदी का लुम्बिनी भ्रमण : चीन के लिए बड़ा झटका, जानें कैसे 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 16 मई को बुद्ध पूर्णिमा के दिन करीब 6 घंटे की यात्रा पर लुम्बिनी आ रहे हैं. मोदी का लुम्बिनी भ्रमण सिर्फ धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा के रूप में नहीं देखा जा सकता है.

Updated on: 15 May 2022, 09:03 PM

काठमांडू/भारत:

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 16 मई को बुद्ध पूर्णिमा के दिन करीब 6 घंटे की यात्रा पर लुम्बिनी आ रहे हैं. मोदी का लुम्बिनी भ्रमण सिर्फ धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा के रूप में नहीं देखा जा सकता है. इसका अपना रणनीतिक और सामरिक महत्व भी है. लुम्बिनी पर बहुत दिनों से अपनी नजर जमाए हुए चीन के लिए मोदी का यह भ्रमण एक बड़ा झटका है. वैसे तो मोदी 2014 के अपने पहले नेपाल दौरे के समय ही लुम्बिनी भ्रमण करने की अपनी इच्छा जता चुके थे, लेकिन नेपाल के आतंरिक राजनीतिक कारणों से चार बार नेपाल आने के बाद भी उनका लुम्बिनी का दौरा नहीं हो पाया था या यूं कहा जाए कि लुम्बिनी का भ्रमण करने का वातावरण नहीं बनने दिया गया था.
  
भारत में रामायण सर्किट की तरह बुद्ध सर्किट को भी स्थापित करने, दुनिया भर में रहे बौद्ध धर्मावलम्बियों को भारत में रहे बुद्ध से जुड़े हुए सभी स्थानों पर ले जाया जाने की योजना और इसी बहाने धार्मिक और सांस्कृतिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए २०१४ में सत्ता संभालते ही भारत सरकार इस पर विशेष ध्यान दे रही है. लेकिन दुनिया में रहे १५ से अधिक बुद्धिस्ट देशों से आने वाले पर्यटकों के लिए भगवान गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी का भ्रमण करने का अपना एक अलग महत्त्व है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए भारत में रहे भगवान् बुद्ध के स्थानों को नेपाल के लुम्बिनी और कपिलवस्तु से जोड़ते हुए बुद्ध सर्किट की अवधारणा को आगे बढ़ाया गया है. 

उधर चीन भी रणनीतिक तौर पर भगवान् बुद्ध के बहाने अपने व्यापारिक और सामरिक स्वार्थों को बढ़ावा देने के लिए लुम्बिनी पर अपनी कुदृष्टि डालनी शुरू कर दी थी. नेपाल में माओवादी सहित अन्य वामपंथी दलों के उदय के साथ ही चीन ने एक बड़ा मास्टरप्लान बनाया जिसके तहत लुम्बिनी को बौद्ध धर्मावलम्बियों का मक्का मदीना जैसा बनाने की कवायद शुरू कर दी. चीन की यह कोशिश थी कि दुनिया के तमाम बौद्धमार्गी देशों को लुम्बिनी के बहाने अपने तरफ जोड़ कर रखे. गौर करने वाली बात यह भी है कि ची की महत्वाकांक्षी योजना बेल्ट एंड रोड से भी अधिकाँश बौद्ध धर्म को मानने वाले देश को सहभागी कराया गया था. 

दुनिया भर में बीआरआई के जाल को बिछाने के लिए चीन ने बुद्धिस्ट देशों को अपने प्रभाव में लेने के लिए एक बड़ी योजना बनाई. पहली बार सन २००० में चीन खुल कर लुम्बिनी में अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया था. उसने भगवान् गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी में एक बड़ा मंदिर बनाया. चीन की बुद्धिस्ट एसोसिएसन ऑफ़ चाइना के द्वारा चीन के बाहर विदेश में बनाया गया यह पहला मंदिर था. यह वही दौर था जब दिल्ली में वाजपेयी की सरकार भी बौद्ध धर्म को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मलेन कराया था और दुनिया भर के तमाम बुद्धिस्टों को बोधगया में बुलाकर भारत में गौतम बुद्ध से जुड़े स्थानों के महत्त्व को दुनिया को समझाया था. वाजपेयी के ही कार्यकाल में ही बुद्ध से जुड़े पर्यटकीय और धार्मिक स्थलों का विकास का काम शुरू हुआ था. 

चीन ने लुम्बिनी में अपने देश का मंदिर बनाने के साथ ही वहां बौद्ध विहार, बौद्ध भिक्षुओं के बहाने अपने जासूसों को वहां किसी न किसी बहाने रखना शुरू कर दिया. भारत की सीमा से महज १९ किमी की दुरी पर रहे लुम्बिनी में चीन का प्रभाव और उपस्थिति बढना भारत की सुरक्षा के लिहाज से भी ख़तरा बनने लगा था. सन २०११ में चीन सरकार के मातहत रहे एशिया पैसिफिक एक्सचेंज एंड कॉपरेशन (एपेक) ने लुम्बिनी को व्यवस्थित बनाने के नाम पर संयुक्त राष्ट्र के औद्योगिक विकास संगठन (यूनिडो) के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसमें लुम्बिनी के विकास और विस्तार के लिए करीब ३०० करोड़ यूएस डॉलर खर्च करने की बात उल्लेख की गई थी. 

बीजिंग में मुख्यालय रहे एपेक के माध्यम से लुम्बिनी में चीन के बढ़ते प्रभाव पर भारत ने कूटनीतिक माध्यम से अपनी आपत्ति जताई थी. अमेरिका, जापान सहित कई यूरोपीय देशों ने भी चीन के साथ नेपाल के बढ़ते संबंध पर अपनी चिंता जताई थी. नेपाल में इस इसा समझौते और एपेक के जरिये चीन के प्रभुत्व को बढाने में किस तरह का राजनीतिक अड़चन नहीं आए इसके लिए चीन ने नेपाल के माओवादी अध्यक्ष और तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रचण्ड को एपेक का सहअध्यक्ष और नेपाल के निर्वासित राजपरिवार के पूर्व युवराज पारस शाह को गवर्निंग काउन्सिल में सदस्य बनाया गया. लेकिन चीन की बदनीयत को भांपते नेपाल के अन्य राजनीतिक दलों को देर नहीं लगी. ऊपर से भारत की नाराजगी और अमेरिका जापान जैसे डोनर देशों की चिंता को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन विदेश मंत्री उपेन्द्र यादव ने एक पत्र लिख कर एपेक और यूनिडो के बीच हुए समझौते से नेपाल सरकार का कोई लेना देना नहीं होने और इस तरह का समझौता नेपाल सर्कार को मान्य नहीं होने की जानकारी संयुक्त राष्ट्र संघ उअर चीन सर्कार दोनों को ही दी गई थी. 

चीन की यह योजना खटाई में पड़ने के बाद भी चीन की दिलचस्पी लुम्बिनी में कम नहीं हुई. सन २०१६ में जब एक बार फिर प्रचण्ड प्रधानमन्त्री बने तो चीन ने बुद्ध अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन के लिए एक बहुत बड़ा आयोजन किया था और उस सम्मलेन में दुनियां भर में अपने प्रभाव में रहे देशों से प्रतिनिधियों को बुलाया था. कहने के लिए तो यह आयोजन नेपाल सर्कार के तरफ से की गई थी लेकिन पीछे से पूरा खर्च चीन सरकार के तरफ से किया गया था. चीन के बीआरआई के तरह ट्रांस हिमालयन रेलवे बनाने और उसे लुम्बिनी तक जोड़ने की बात चीन के तरफ से ही फैलाई गई. चीन की ४० प्रतिशत आबादी बौद्ध धर्म को मानती है और यह कहा गया कि यदि चीन के केरुंग से काठमांडू होते हुए लुम्बिनी तक रेल लाइन बिछा दिया गया तो हर वर्ष लाखों की संख्या में चीनी पर्यटक लुम्बिनी आ सकेंगे जिससे नेपाल को कई मायनों में फायदा होगा.

इससे पहले २०१५ के अप्रैल में चीन सरकार के स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन फॉर रिलीजियस अफेयर्स के निर्देशक वांग चुवें ने नेपाल का दौरा किया था और तत्कालीन राष्ट्रपति डा रामवरण यादव और तत्कालीन संस्कृति मंत्री से मुलाक़ात कर एपेक वाले समझौते को फिर से आगे बढाने का प्रस्ताव रखा था. सन २०१८ में चीन के तरफ से एक बार फिर ट्रांस हिमालयन बुद्धिस्ट सर्किट के अवधारणा को मिलकर आगे बढाने का दबाब डाला लेकिन उस समय भी चीन सफल नहीं हो पाया. 
वैसे तो चीन ने नेपाल को बीआरआई का पार्टनर बना लिया है लेकिन नेपाल ने बीआरआई अंतर्गत कोई भी ऋण लेने से इनकार कर दिया तो भी लुम्बिनी को लक्षित करते हुए नेपाल का दूसरा अन्तराष्ट्रीय विमानस्थल निर्माण करने के लिए लोन दिया है. 

लुम्बिनी के करीब भैरहवा में बने गौतम बुद्ध अन्तराष्ट्रीय विमानस्थल का निर्माण कार्य समाप्त होकर टेक्नीकल फ्लाईट भी हो चुकी है. इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी के लुम्बिनी भ्रमण के ही दिन नेपाल के प्रधानमंत्री द्वारा किया जाने वाला है और उसी दिन से इस विमानस्थल पर से पहला कमर्सियल फ्लाईट भी चलाया जाएगा. नेपाल सरकार ने पूरी कोशिश की कि प्रधानमंत्री मोदी का विमान दिल्ली से सीधे भैरहवा के गौतम बुद्ध विमानस्थल पर ही लैंड करे. लेकिन भारत के तरफ से इससे साफ़ इन्कार कर दिया गया. चीन के कहने पर नेपाल ने यह इंटरनेशल एयरपोर्ट तो बना लिया है लेकिन बिना भारत के सहयोग के वहां से नियमित फ्लाईट होना थोडा मुश्किल है. विदेशों से आने वाले विमानों के लिए यह खर्चीला भी है. चीन ने भारत के द्वारा कुशीनगर में बनाए जाने वाले इंटरनेशल एयरपोर्ट को फ्लॉप करने के लिए यह चाल चली थी. लेकिन कुशीनगर का एयरपोर्ट कबका बनकर तैयार भी हो गया और उसका संचालन भी हो रहा है लेकिन चीन के द्वारा भैरहवा एयरपोर्ट का निर्माण में ना सिर्फ दो साल की देरी हुई बल्कि टेक्निकली रूप से इसके सञ्चालन में कई झंझटों का सामना करना पड़ेगा. 

जब से चीन ने भैरहवा में अन्तराष्ट्रीय विमानस्थल बनाने की बात शुरू हुई उसी समय से नेपाल ने गोरखपुर भैरहवा का एयर रूट नेपाल के लिए उपलब्ध कराने की मांग शुरू कर दी थी. लगभग हर द्विपक्षीय बैठक में यह मुद्दा जरूर उठाया जाता है. अब तक नेपाल में प्रवेश करने वाले विदेशी विमानों को सिर्फ रक्सौल बिरग्नाज का रूट ही उपलब्ध कराया गया है. लेकिन नेपाल इसके आलावा पांच एयर रूट की डिमांड करता रहता है. नेपाल को यह समझना चाहिए कि भाढ़ावा में विमान अवतरण के लिए भारत कभी गोरखपुर सुनौली का रूट दे ही नहीं सकता है क्योंकि भैरहवा में किसी भी बड़े विमान को लैंड करने के लिए गोरखपुर से ही लो हाईट पर उड़ान भरना होगा जो भारत कभी नहीं चाहेगा क्योंकि गोरखपुर में एयरफोर्स का बेस स्टेशन है और कोई भी देश सुरक्षा की लिहाज से किसी विदेशी विमान को इतनी कम ऊंचाई पर उड़ान भरने की अनुमति कदापि नहीं दे सकता है. 

अब तक लुम्बिनी में कई देशों ने अपना अलग मंदिर और बौद्ध विहार बनवा लिया है, लेकिन भारत के तरफ से अब तक वहां कोई भी निर्माण कार्य नहीं किया गया था. इस बार मोदी अपने भ्रमण के दौरान भारत के तरफ से करीब १०० करोड़ रुपये की लागत से लुम्बिनी का सबसे बड़ा बौद्ध विहार का शिलान्यास करने वाले हैं. अब तक भारत सहित अन्य देशों के पर्ताकों सिर्फ चीन, थाईलैंड जापान या अन्य देह्सों के द्वारा बनाए गए बौद्ध मंदिरों का दर्शन करते थे लेकिन तीन साल में भारत सरकार के द्वारा बनाए गए बौद्ध विहार का भी दर्शन कर सकते हैं.   

चीन का लुम्बिनी में तीन स्वार्थ है. पहला भारत से जुड़े होने के कारण लुम्बिनी में अपनी रणनीतिक उपस्थिति बढ़ाना. लुम्बिनी को बौद्ध का सबसे बड़ा स्थान बताते हुए दुनियां भर के बौद्ध मार्गी देशों को उससे जोड़ते हुए अपना व्यापारिक स्वार्थ पूरा करना और नेपाल में लुम्बिनी को लेकर जो भावनात्मक लगाव है उसको अपने पक्ष में साफ्ट पावर के रूप में प्रयोग करना. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के इस भ्रमण से चीन की कोई भी चाल और उसका कोई भी गलत मंसूबा पूरा नहीं होने वाला है. मोदी का इस बार का ६ घंटे का लुम्बिनी भ्रमण चीन के कई गलत मंसूबों पर पानी फेरने वाला है.