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पद्मश्री से सम्मानित मधु मंसूरी को जानिए, जिन्होंने गीतों को बनाया सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का हथियार

पद्मश्री से सम्मानित मधु मंसूरी को जानिए, जिन्होंने गीतों को बनाया सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का हथियार

Updated on: 08 Nov 2021, 10:20 PM

रांची:

गांव छोड़ब नाहीं, जंगल छोड़ब नाहीं..। ये उस गीत के बोल हैं, जो झारखंड से लेकर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा से बंगाल तक जल, जंगल एवं जमीन बचाने के लिए चलने वाले अभियानों और आंदोलनों में सबसे ज्यादा गूंजते हैं। यह गीत रचने वाले मधु मंसूरी हंसमुख उन शख्सियतों में शामिल हैं, जिन्हें सोमवार को राष्ट्रपति के हाथों पद्मश्री सम्मान प्राप्त हुआ।

75 वर्षीय मधु मंसूरी रांची के रातू प्रखंड अंतर्गत सिमलिया गांव के रहने वाले हैं। उन्होंने झारखंड की क्षेत्रीय भाषा नागपुरी में अब तक 300 से भी ज्यादा गीत लिखे हैं। उनके ज्यादातर गीतों में सामाजिक सरोकार के स्वर मुखर हैं। उन्हें झारखंड में ऐसे सांस्कृतिक अग्रदूत के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मुहिम से लेकर राजनीतिक जागरूकता तक के लिए गीतों को हथियार बनाया।

मधु मंसूरी हंसमुख ने संगीत की औपचारिक शिक्षा नहीं ली, लेकिन वे सहज-स्वाभाविक लोक कलाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। गीत-संगीत की दीवानगी ऐसी कि रोज अहले सुबह तीन बजे उठकर गीत लिखते हैं और उन्हें स्वरों में बांधने का अभ्यास करते हैं। वह क्षेत्रीय भाषा नागपुरी में आधुनिक राग-रंग के जन्मदाता हैं। उनके लिखे गीत झारखंड के नागपुरी भाषी क्षेत्रों में गांव-गांव, गली-गली में गूंजते हैं।

झारखंड आंदोलन में राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ- साथ ही संस्कृतिकर्मियों का भी खासा योगदान रहा है। मधु मंसूरी इस आंदोलन में अग्रणी पंक्ति में शामिल कलाकार रहे हैं। झारखंड आंदोलन के दौरान उनका गीत झारखंड में खेती बाड़ी, पटना में खलिहान.. काफी मशहूर हुआ था।

उन्होंने नागपुरी गीतों का वर्गीकरण भी किया है। वह आराम करने की इस उम्र में भी इसलिए लगातार काम कर रहे हैं, ताकि नागपुरी गीतों को लिखने-गाने की यह परंपरा कायम रहे, नयी पीढ़ी प्रेरित हो और नये गीतकार लेखक आगे आयें। श्रोता प्यार से उन्हें नागपुरी मंच का राजकुमार कहते हैं।

मधु मंसूरी बताते हैं कि उनके पिता स्व अब्दुल रहमान अच्छे लोकगायक थे। उनके गांव में होनेवाले पर्व-त्योहार करम, जिउतिया पर सभी समुदाय के लोग मिलकर गाते-बजाते थे। उन्हें यहीं से प्रेरणा मिली। आठ साल की उम्र में पहली बार घर से बाहर निकलकर सार्वजनिक स्थल पर गीत गाया और इसके बाद यह सिलसिला आज 75 साल की उम्र में भी जारी है। वह कहते हैं कि लिखे और गाये बगैर उन्हें चैन नहीं। उनकी इच्छा है कि लोग झारखंड की साझा संस्कृति को सहेजें और आगे बढ़ायें।

पद्मश्री सम्मान पाकर कैसा लग रहा है? इस सवाल पर मधु मंसूरी कहते हैं कि खुशी है कि सरकार ने मेरी तपस्या को सम्मान दिया। आने वाली पीढ़ियां गांव-जंगल-जमीन से जुड़ी संस्कृति को सहेज लें तो यह हम जैसे लोगों के लिए सबसे बड़ा सम्मान होगा।

केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा ने मधु मंसूरी को पद्मश्री सम्मान से नवाजे जाने पर हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने झारखंड की लोकसंस्कृति को राष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलायी है।

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