निर्भया केस : दोषियों के डेथ वारंट पर रोक लगाने से दिल्‍ली हाई कोर्ट का इनकार

जज ने सवाल किया- सुप्रीम कोर्ट 2017 में फैसला सुना चुका है. 2018 में पुनर्विचार अर्जी खारिज हो चुकी है. फिर क्यूरेटिव और दया याचिका दाखिल क्यों नहीं गई? क्या दोषी डेथ वारंट जारी होने का इतंजार कर रहे थे?

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Sunil Mishra
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निर्भया केस : दोषियों के डेथ वारंट पर रोक लगाने से दिल्‍ली हाई कोर्ट का इनकार

निर्भया केस : दिल्‍ली हाई कोर्ट ने डेथ वारंट के खिलाफ याचिका खारिज की( Photo Credit : File Photo)

दिल्‍ली हाई कोर्ट ने निर्भया केस के एक दोषी की याचिका पर पटियाला हाउस कोर्ट द्वारा जारी डेथ वारंट पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. हाई कोर्ट ने कहा, दोषियों ने 2017 के बाद काफी वक्‍त जाया कर दिया है और वे समय बर्बाद करने की कोशिश कर रहे हैं. सुनवाई के दौरान जज ने सवाल किया- सुप्रीम कोर्ट 2017 में फैसला सुना चुका है. 2018 में पुनर्विचार अर्जी खारिज हो चुकी है. फिर क्यूरेटिव और दया याचिका दाखिल क्यों नहीं गई? क्या दोषी डेथ वारंट जारी होने का इतंजार कर रहे थे? कोर्ट ने यह भी कहा, डेथ वारंट जारी होने के समय कोई याचिका किसी भी स्‍तर पर पेंडिंग नहीं थी. सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों के मुताबिक, एक वाजिब समयसीमा में इन कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल हो जाना चाहिए. इसके बाद शत्रुघ्‍न चौहान केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए अधिवक्‍ता रेबेका जॉन ने कहा, इस फैसले के मुताबिक आखिरी सांस तक दोषी को अपनी पैरवी का अधिकार रखता है. राष्‍ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज होने पर भी उसे 14 दिनों की मोहलत मिलनी चाहिए ताकि इस दरमियान वो अपने घरवालों से मुलाकात और बाकी काम कर सके.

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रेबेका जॉन की ओर से कहा गया, क़ानून आपको दो बार दया याचिका दाखिल करने की इजाज़त नहीं देता. जज ने फिर सवाल किया- 2017 में याचिका खारिज होने के बाद आपने इतने वक़्त में इन कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल क्यों नहीं किया?

अभियोजन पक्ष की ओर से ASG मनिंदर आचार्य ने कहा - यह याचिका Premature है. इस पर अभी सुनवाई का कोई औचित्य नहीं है. राष्‍ट्रपति ने अभी दया याचिका पर कोई फैसला नहीं लिया है. जान-बूझकर दोषियों की ओर से फांसी को टालते रहने के लिए अपील दायर करने में देरी हुई. दिल्ली जेल मैनुअल के मुताबिक दया याचिका दाखिल करने के लिए सिर्फ 7 दिन मिलते हैं. ASG ने कहा - कल ही राष्‍ट्रपति के सामने दोषी की ओर से दया याचिका दायर की गई है. लिहाजा इस स्टेज पर इस अर्जी पर सुनवाई का कोई औचित्य नहीं है.

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सुनवाई के दौरान दिल्‍ली सरकार का पक्ष रखते हुए अधिवक्‍ता राहुल मेहरा ने कहा, दया याचिका लंबित रहने की सूरत में फांसी की सज़ा पर अमल नहीं हो सकता. जेल मैनुअल और दिल्ली सरकार के नियम भी यही कहते हैं. अगर दोषियों की ओर से जान-बूझकर कर देरी हो रही है तो कोर्ट फांसी के अमल की प्रकिया में तेजी लाने को कह सकती है. जस्टिस मनमोहन ने यह भी सवाल किए कि जेल अफसरों ने दोषियों को पहला नोटिस जारी करने में इतनी देर क्यों की.

राहुल मेहरा ने कहा- वैसे भी जब तक राष्ट्रपति फैसला नहीं ले लेते, तब तक फांसी नहीं दी जा सकती. लिहाज़ा इस स्टेज पर यह याचिका प्रीमैच्‍योर है. इस पर सुनवाई की ज़रूरत नहीं है. इसके बाद सुनवाई कर रहे जज ने सख्‍त टिप्‍पणी करते हुए कहा, यह साफ है कि कैसे दोषियों ने सिस्टम का बड़ी चालकी से दुरुपयोग किया. ऐसे में लोगों का सिस्टम से भरोसा उठ जाएगा. राहुल मेहरा ने कहा, 21 जनवरी की दोपहर को हम ट्रायल कोर्ट के जज के पास जाएंगे. तब तक दया याचिका खारिज होती है तो भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक 14 दिन की मोहलत वाला नया डेथ वारंट जारी करना होगा. यानी किसी भी सूरत में 22 जनवरी को तो डेथ वारंट पर अमल सम्भव नहीं है. लिहाजा यह याचिका अभी प्रीमैच्‍योर है.

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जज ने कहा- दोषी सुप्रीम कोर्ट जा सकते है. 2017 में SC से अर्जी खारिज होने के बाद दोषियों ने अपील दायर करने में जान-बूझकर कर देरी की, ताकि मामले को लटकाया जा सके.

जस्टिस मनमोहन बोले, क़ानूनी राहत के विकल्प के लिए वाजिब समयसीमा की मांग कर सकते हैं. आपका समय 2017 से शुरू होता है. आपने तब से दया याचिका क्यों नहीं दायर की. आप दूसरे दोषियों का हवाला देकर ख़ुद के केस को और नहीं लटका सकते. हर दोषी का अलग केस है. हरेक मामले में विशेष परिस्थितियों के मद्देनजर राहत की अपील पर विचार होता है.

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इसके बाद अधिवक्‍ता रेबेका जॉन ने कहा, वो डेथ वारंट पर रोक लगवाने के लिए ट्रायल कोर्ट जाने की इजाजत के साथ दिल्‍ली हाई कोर्ट से अर्जी वापस लेना चाहती है. इस दरमियान इस कोर्ट से अंतरिम राहत चाहते हैं.

इस पर निर्भया के वकील जितेंद्र झा ने कहा, दोषियों की ओर से जान-बूझकर मामला लटकाने का खामियाजा पीड़ित परिवार को भुगतना पड़ रहा है, जो हर रोज़ निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का चक्कर लगा रहे है. कोर्ट को इससे निपटने के लिए कुछ दिशा निर्देश बनाने चाहिए.

Source : Arvind Singh

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