उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मोदी की राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी के तूफान पर सवारी जारी रख सकते हैं, क्योंकि विभाजित होने के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर उनके विपक्षियों के पास साख की कमी है। कमजोर विपक्ष पीएम मोदी की सबसे बड़ी ताकत बना हुआ है।
highlights
- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले की असली परीक्षा 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में होगी
- नोटबंदी के बाद हालांकि बीजेपी को राज्यों में हुए स्थानीय चुनावों में जबरदस्त बढ़त मिली है
New Delhi:
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी के तूफान पर सवारी जारी रख सकते हैं, क्योंकि विभाजित होने के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर उनके विपक्षियों के पास साख की कमी है। कमजोर विपक्ष पीएम मोदी की सबसे बड़ी ताकत बना हुआ है।
इस बीच गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और चंडीगढ़ के निगम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मिली जीत से जाहिर होता है कि अब तक प्रधानमंत्री में लोगों का विश्वास बना हुआ है। यह भी सच है कि मोदी की कटु आलोचक तृणमूल कांग्रेस ने भी अपने राजनीतिक हलके में कई चुनाव जीते हैं। इससे जाहिर होता है कि राजनीतिक दलों के प्रभाव क्षेत्र मजबूती से सीमांकित हैं, लेकिन निस्संदेह मोदी के प्रभाव एक बड़े क्षेत्र में फैले हुए हैं।
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लेकिन वास्तव में मोदी की अग्नि परीक्षा अगले साल उत्तर प्रदेश में होगी, जिसकी अहमियत पंजाब, गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में एक ही समय में होने वाले विधानसभा चुनावों से कहीं अधिक है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम दर्शाएंगे कि भाजपा के विकास पुरुष किस तरह अपने कार्यकाल का आधा सफर पूरा कर रहे हैं।
परीक्षा इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि नोटबंदी आर्थिक सुधार का हिस्सा है जिसे मोदी लागू करना चाहते हैं। लेकिन जहां तक रोजगार सृजन का सवाल है तो 'सबका साथ और सबका विकास' कार्यक्रम अब तक खास सफल नहीं रहा है।
शायद इसीलिए मोदी की केंद्र सरकार समानांतर अर्थव्यवस्था पर रोक लगाने की और देश में नकदी रहित प्रणाली लागू करने की नई नीति पर काम कर रही है ताकि अगले आम चुनाव की वैतरणी पार करने मदद मिले।
इस लिहाज से राजनीतिक हृदयस्थल होने के नाते उत्तर प्रदेश ने लोगों की मनोदशा के संकेत देने में हमेशा अहम भूमिका अदा की है। हिंदी भाषी राज्य बिहार में मात खाने के बाद मोदी बिल्कुल नहीं चाहेंगे कि उत्तर प्रदेश भी भाजपा के हाथ से निकल जाए।
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लोकसभा चुनाव-2014 में शानदार प्रदर्शन कर 80 में से 71 सीटों पर कब्जा जमाने वाली भाजपा को उत्तर प्रदेश में दो दलों, सत्ताधारी समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा), कड़ी टक्कर मिलने की उम्मीद है और वे चाहेंगे कि लोकसभा चुनाव में उनके गठबंधन दल बेहतर प्रदर्शन करें। अपना दल ने लोकसभा चुनाव में दो सीटें जीती थीं।
कुछ समय पहले सपा में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव के बीच पारिवारिक झगड़े से प्रतीत हुआ कि भाजपा को बढ़त मिलेगी, लेकिन पारिवारिक कलह कुछ समय के लिए थम चुका है, क्योंकि मुलायम सिंह यादव ने शायद यह महसूस कर लिया है कि आंतरिक झगड़े से पार्टी अपनी कब्र खोद रही है।
आज के युवा राजनीतिक नेताओं की तरह विकास के पक्षधर अखिलेश यादव ने बड़ों के साथ विवाद में संलग्न होने के दौरान समय की बर्बादी की भरपाई के लिए जोर-शोर से अनेक विकासोन्मुख योजनाएं शुरू की हैं।
इसलिए मोदी इस हकीकत से वाकिफ होंगे कि सपा से और अधिक लाभ मिलना आसान नहीं है, जैसा कि उन्होंने उसके आंतरिक कलह के समय सोचा था। फिर भी, अगर सपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन होता है तो भाजपा के लिए चुनौती और भी दुर्जेय हो जाएगी, क्योंकि मुस्लिम-यादव गठजोड़ फिर से बन जाएगा जिसके लिए बिहार कभी जाना जाता था।
भाजपा के लिए प्रतिकूल परिस्थिति यह है कि एक छोटा-सा अपना दल के अलावा प्रदेश में उसका कोई अन्य घटक दल नहीं है, और न ही उसके पास कोई मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार है। मोदी ही उसकी एकमात्र पूंजी हैं और उनका प्रभाव भी लोकसभा चुनाव-2014 जैसा नहीं रह गया है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की उपस्थिति महसूस कराने के लिए खास तौर से 50 दिनों बाद उनके नोटबंदी के दांव को उड़ान भरना होगा। यह समयसीमा दिसंबर के अंत में समाप्त होगी।
लेकिन अगर बैंकों के बाहर कतारें लंबी रहती हैं तो मोदी के सामने एक बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि 50 दिनों की समयसीमा समाप्त होने के बाद वह प्रधानमंत्री के समर्थन करने वाली स्थिति पर पुनर्विचार करेंगे।
उधर, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रमुख लालू प्रसाद ने पहले ही कहा है कि दिसंबर के अंत से पहले वह मोदी के विरोधियों के पक्ष में खड़े होंगे। इसके बाद मोदी के पक्ष में केवल ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ही बच जाएंगे।
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जहां तक युवा पीढ़ी का सवाल है तो उनसे प्रधनमंत्री का बिहार के दिग्गजों या ममता बनर्जी की तुलना में अधिक जुड़ाव है। क्योंकि लगातार माना जा रहा है कि मोदी में अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने की क्षमता है। लेकिन दूरदर्शी छवि के कारण अखिलेश यादव भी उत्तर प्रदेश के युवाओं के बीच काफी पसंद किए जाते हैं।
अगर उत्तर प्रदेश में चुनावी दंगल मोदी बनाम अखिलेश होने जा रहा है और भाजपा हार जाती है तो राजनीतिक रूप से प्रधानमंत्री को भारी क्षति होगी।
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