बिहार के नालंदा जिले के रहने वाले कपिलदेव प्रसाद आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद 68 वर्षीय कपिलदेव आज चर्चा में हैं, लेकिन उनके जीवन में संघर्ष कम नहीं है। वे आज भी बुनकरों के बुने कपड़ों के लिए बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण परेशान हैं। कपिलदेव पिछले 50-52 साल से बुनकरी से न केवल खुद जुड़े हैं बल्कि जिले के 500 परिवार भी इस धंधे से जुड़कर रोजगार पा रहे हैं।
नालंदा जिला मुख्यालय बिहारशरीफ से करीब तीन किलोमीटर दूर बसवन बिगहा के रहने वाले कपिलदेव की चर्चा आज भले ही हो रही हो, लेकिन सही अर्थों में इनका जीवन गुमनामी में रहकर अपने पारंपरिक बुनकर के कार्यों को आगे बढ़ाने का रहा है।
कपिलदेव करीब छह दशक से इस धंधे में जुड़े हैं, लेकिन इनकी प्रसिद्धि वस्त्र निर्माण में बावन बूटी साड़ी और पर्दे से हुई। वैसे, ऐसा नहीं है कि प्रसाद ने इस कार्य को घर में स्वयं प्रारंभ किया। यह इनके परिवार का खानदानी पेशा है।
आईएएनएस के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि उनके दादा जी शनिचर तांती ने इस गांव में इसकी शुरूआत की थी। इसके बाद उनके पिता हरि तांती ने इस कार्य को आगे बढ़ाया। प्रसाद को इस बात का संतोष है कि उनका पुत्र सूर्यदेव भी इसी काम को पसंद करता है और इस कार्य में सहयोग भी कर रहा है।
उन्होंने कहा कि उनके दादा भी हस्तकरघा के जरिए बावन बूटी साड़ी बनाते थे और बाद में आने वाली पीढ़ी इस हुनर को आगे बढ़ा रही है। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं कि बावन बूटी कला का इस्तेमाल केवल साड़ी, पर्दा में ही किया जाता है इस कला से बेडशीट और शॉल सहित कई प्रकार के वस्त्र बनाए जाते हैं।
उन्होंने कहा कि कालांतर में इस कला में आधुनिकता का प्रवेश होता गया और इसकी प्रसिद्धि बढ़ती गई। उन्होंने कहा कि देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बावन बूटी से बने परदों को राष्ट्रपति भवन में जब लगवाया था तब इस कला की पहचान देशस्तर पर हुई थी। उन्होंने बताया कि इस कला से बने वस्त्रों में बौद्ध से जुड़े प्रतीकों का खूब इस्तेमाल होता है, जिस कारण बौद्धधर्मावलंबियों के लिए यह पसंदीदा है। वैसे समय समय पर इस क्षेत्र में नए-नए डिजायन भी आते रहे हैं और उसका दायरा बढ़ता जा रहा है।
प्रसाद हालांकि इसके बाजार को लेकर काफी नाखुश हैं। उन्होंने बेबाक शब्दों में कहा कि यह कला तो अमीर होती जा रही है लेकिन इसके बाजार सीमित होते जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 2000 तक बिहार राज्य निर्यात निगम की ओर से यहां के पर्दे, साड़ी, बेडशीट जर्मनी, ब्रिटेन भेजे जाते थे। बिहार में कई निगम थे जिससे बाजार उपलब्ध होता था लेकिन धीरे धीरे सब बंद हो गए और बाजार भी सिमटता चले गया।
वे कहते हैं कि बिहारशरीफ में पहले एक बुनकर स्कूल भी होता था, जिसमें लोग बुनकरी सीखते थे। वे बताते हैं कि हमने भी बुनकरी का इल्म इसी स्कूल से सीखा था, लेकिन 1990 में यह स्कूल भी बंद हो गया। वे कहते हैं कि बसवन बिगहा में ही प्राथमिक बुनकर सहयोग समिति का गठन किया गया है, जिसमें कई परिवार जुड़े हुए हैं, लेकिन काम के अभाव में कई लोग अब बुनकरी छोड़ रहे हैं।
वैसे, प्रसाद चिंतित जरूर हैं, लेकिन हतोत्सासहित नहीं। उन्होंने कहा कि आज भी लोग बावन बूटी कला के कद्रदान हैं। जरूरत है कि इस कला से जुड़े लोगों की कलाओं को बाजार देने की, जिससे इस प्राचीन कला को बचाया जा सके।
प्रसाद बताते हैं कि बावन बूटी साड़ी में एक जैसी 52 बूटियां यानि मौटिफ होते हैं। यह बहुत महीन होती है और धागों की मदद से साड़ी पर तागा जाता है। इस कला की विशेषता यह भी है कि पूरे कपड़े पर एक ही डिजाइन को 52 बार बूटियों के रूप में बनाया जाता है।
बावन बूटी के माध्यम से छह गज की साड़ी में बौद्ध धर्म की कलाकृतियों को उकेरा जाता है। डिजायनों में कमल के फूल, पीपल के पत्ते, बोधि वृक्ष, बैल, त्रिशूल, सुनहरी मछली, धर्म का पहिया जैसे चिह्नें का खूब इस्तेमाल होता है।
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Source : IANS