Independence Day 2019: देश की आजादी में इन महिलाओं के योगदान को नहीं भुला सकते
यदि इतिहास के गुजरे पन्नों को खंगालें तो उन बलिदानों पर से परदा उठता है और उन दिनों की यादें आज भी जेहन में ताजा हो उठती हैं.
नई दिल्ली:
आज हम भारत की आजादी की 73वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं. आज से 72 साल पहले हमने अंग्रेजों के लगभग 200 साल की हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंका था. आजादी की इस वर्षगांठ पर पूरा देश उल्लास में नहाया हुआ है. लेकिन हम आपको बता दें कि हमने यह आजादी पाने के लिए कितनी बड़ी-बड़ी कुर्बानियां दी हैं. आज के 72 साल पहले हमने यह आजादी अपने वीर क्रांतिकारी शहीदों के खून और देशवासियों के बलिदान से चुकाई है. यदि इतिहास के गुजरे पन्नों को खंगालें तो उन बलिदानों पर से परदा उठता है और उन दिनों की यादें आज भी जेहन में ताजा हो उठती हैं. आजादी की इस जंग में देश की महिलाओं ने भी बराबर का सहयोग दिया लेकिन इतिहास के पन्नों में उन्हें वो जगह नहीं मिली जिसकी वो हकदार थीं. आज हम कुछ ही गिनी-चुनी महिला क्रांतिकारियों को ही जानते हैं जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद की. हम आपको बताएंगे उन वीरांगनाओं के बारे में जिन्हें इतिहास के पन्नों में वो जगह नहीं मिल पाई है.
झांसी की रानी लक्ष्मी बाई
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी के एक पुरोहित के घर में हुआ था. बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका रखा गया था, लोग प्यार से इन्हें मनु कहकर पुकारते थे. मई, 1842 में झांसी के महाराज गंगाधर राव के साथ विवाह के बाद उनका नाम बदल कर लक्ष्मीबाई कर दिया गया. साल 1853 में उनके पति गंगाधर राव की मृत्यु हो गई जिसके बाद अंग्रेज़ों ने डलहौजी की कुख्यात हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स) के सहारे झांसी राज्य का ब्रिटिश हुकूमत में विलय कर लिया. अंग्रेज़ों ने लक्ष्मीबाई के गोद लिए बेटे दामोदर राव को गद्दी का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया. झांसी की रानी ने मरते दम तक अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार नहीं की. इतिहास में उनका नाम आज स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हैं.
झांसी के दुर्गा दल की झलकारी बाई
झलकारी बाई झांसी के दुर्गा दल या महिला दस्ते की सदस्य थीं. उनके पति झांसी की सेना में सैनिक थे. झलकारी बाई स्वयं तलवारबाजी, तीरंदाजी और घुड़सवारी में निपुण थीं. लक्ष्मीबाई से समानता होने के चलते उन्होंने अंग्रेजों को चकमा देने के लिए एक चाल चली थी. अंग्रेजी सैन्य रणनीति को चकमा देने के लिए झलकारी बाई ने झांसी की रानी की तरह पोशाक पहनी और ब्रिटिश सेना को गुमराह करके उन्हें दूर तक ले गईं जब अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तब उन्हें पता चला ये झांसी की रानी नहीं बल्कि कोई और है लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और झांसी की रानी ब्रिटिश सेना से बचकर अपना ठिकाना बदल चुकीं थीं. किंवदंतियों के मुताबिक़ जब अंग्रेज़ों यह पता चला कि उन्होंने दरअसल लक्ष्मीबाई का वेश धारण किये हुए किसी और को पकड़ लिया है, तो उन्होंने झलकारी बाई को रिहा कर दिया.
बेग़म हज़रत महल
देश के इतिहास में पहले स्वतंत्रता संग्राम का जिक्र सन 1857 में ही किया गया है. इसी समय अवध में गद्दी से बेदख़ल किये गये नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेग़म हज़रत महल ने ईस्ट इंडिया कंपनी जमकर विरोध किया. इस विद्रोह में उनका साथ महाराज बालकृष्ण, राजा जयलाल, बैसवारा के राणा बेनी माधव बख़्श, महोना के राजा दृग बिजय सिंह, फ़ैज़ाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह शाह, राजा मानसिंह और राजा जयलाल सिंह ने दिया. हज़रत महल ने चिनहट की लड़ाई में विद्रोही सेना की शानदार जीत के बाद 5 जून, 1857 को अपने 11 वर्षीय बेटे को मुग़ल सिंहासन के अधीन अवध का ताज पहनाया. अंग्रेज़ों को लखनऊ रेजिडेंसी में शरण लेने के लिए विवश होना पड़ा.
एक बेहतरीन निशानेबाजी थीं वीरांगना ऊदा देवी
नवाबों के शहर लखनऊ में हुई ब्रिटिश हुकूमत की सबसे भीषण लड़ाइयों में से एक लड़ाई थी ऊदा देवी की 1 नवंबर, 1857 में सिकंदर बाग़ में हुई इस लड़ाई में अंग्रेज पूरी तरह से चकमा खा गए थे. सिकंदर बाग में बागियों ने डेरा डाल रखा था यह बाग रेजिडेंसी में फ़ंसे हुए यूरोपियनों को बचाने निकले कमांडर कोलिन कैंपबेल के रास्ते में पड़ता था. यहां भारतीय विद्रोहियों और ब्रिटिश हुकूमत के बीच खूनी जंग हुई थी जिसमें हज़ारों भारतीय सैनिक शहीद हुए. इतिहास की एक घटना के मुताबिक अंग्रेज सिपाही परेशान थे कि गोलियां कौन कहां से चला रहा है. जैसे ही अंग्रेज सिपाही वहां स्थित एक पेड़ के पास पहुंचते गोली चलने की आवाज आती और सिपाही धराशयी हो जाता. दरअसल उस पेड़ पर मचान लगाकर कोई विद्रोही बैठा था जो अपने सटीक निशाने के दम पर अंग्रेजी सेना का संहार किये जा रहा था. जब अंग्रेजों ने उस पेड़ को काटा तब वो योद्धा अंग्रेजों के हाथ लगा लेकिन ये क्या ये तो एक महिला निकली जिनका नाम ऊदा देवी था. ऊदा देवी पासी समुदाय से ताल्लुक रखती थीं. उनकी
लक्ष्मी सहगल
लक्ष्मी सहगल ने पेशे से डॉक्टर रहते हुए भी सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर देश की आजादी में प्रमुख भूमिका निभाई थी. लक्ष्मी सहगल ने साल 2002 के राष्ट्रपति चुनावों में भी हिस्सेदारी निभाई थी. वो राष्ट्रपति चुनाव में वाम-मोर्चे की उम्मीदवार थीं. लेकिन एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें हरा दिया था. उनका पूरा नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन सहगल था. नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अटूट अनुयायी के तौर पर वे इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल हुईं थीं. उन्हें वर्ष 1998 में पद्म विभूषण से नवाजा गया था.
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