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विधानसभा चुनावों के बाद जानिए कब-कब उठे राज्यपालों की भूमिका पर सवाल

राज्यपाल ने बीजेपी को अपना बहुमत साबित करने के लिए 30 नवंबर तक का समय दिया है. इसके बाद महाराष्ट्र में सियासी पारा लगातार बढ़ता ही जा रहा है.

Updated on: 23 Nov 2019, 09:55 PM

नई दिल्‍ली:

महाराष्ट्र में पिछले एक महीनों से जारी सियासी घमासान के बाद नाटकीय अंदाज में बीजेपी ने सरकार बना ही ली. शनिवार को सुबह लगभग सवा पांच बजे राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने राष्ट्रपति शासन हटा लिया इसके बाद एनसीपी नेता अजित पवार के समर्थन से बीजेपी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया सुबह 8 बजकर 10 मिनट पर पूर्वमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने एक बार फिर से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली उनके साथ अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली. राज्यपाल ने बीजेपी को अपना बहुमत साबित करने के लिए 30 नवंबर तक का समय दिया है. इसके बाद महाराष्ट्र में सियासी पारा लगातार बढ़ता ही जा रहा है. एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने अपने बयान में कहा कि यह उनकी मर्जी से नहीं हुआ है अजित पवार ने उनके साथ धोखा किया है.

आपको बता दें कि यह पहला मौका नहीं है जब किसी राज्य में चुनाव के बाद सरकार बनाने को लेकर ऐसे सियासी संकट सामने आए हों. चलिए आपको बताते हैं कि देश की राजनीति में ऐसा पहले कितनी बार हुआ है. कर्नाटक में हुई सियासी उठापटक के बारे में देश की जनता को अच्छी तरह से पता है. पूरे देश ने कर्नाटक का सियासी ड्रामा देखा विधायकों की खरीद-फरोख्त से लेकर अल्पमत में बीजेपी की सरकार बनने तक बीएस येदियुरप्पा को राज्यपाल ने 15 दिनों का समय दिया था ऐसे में शिवसेना को 48 घंटों का वक्त क्यों नहीं दिया गया.

गोवा सियासी ड्रामा कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के बावजूद विपक्ष में बैठी
गोवा में राजनीतिक उठापटक का फायदा उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी ने महज 13 विधायकों की जीत के साथ ही सरकार बना ली गोवा की 40 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस 17 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी जबकि बीजेपी ने 13 सीटें जीती थीं. बहुमत के लिए 21 सीटों की जरूरत थी और इसका इंतजाम बीजेपी ने कर लिया था. गोवा में बीजेपी ने गोवा फारवर्ड और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के तीन-तीन और दो निर्दलीय विधायकों के समर्थन से सरकार बनाई. आपको बता दें कि गोवा के सियासी ड्रामे में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा.

मेघालय में भी हुआ था सियासी ड्रामा
मेघालय में भी कांग्रेस 21 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी लेकिन 60 विधानसभा सीट वाले मेघालय में बहुमत के लिए 31 विधायक चाहिए थे. यहां भारतीय जनता पार्टी को महज 2 सीटें ही मिलीं थी इसके बावजूद नेशनल पीपल्स पार्टी (NPP) के 19 विधायक, UDP के छह विधायक, HSPDP के 2 विधायक, PDF के चार विधायक और एक निर्दलीय को जोड़कर यह संख्या 34 तक पहुंच गई. बीजेपी सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा बनीं और सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली कांग्रेस को सियासी ड्रामें के बाद एक बार फिर से विपक्ष में बैठना पड़ा.

मणिपुर में भी 28 सीटें जीतने के बाद कांग्रेस नहीं बना पाई थी सरकार
वहीं मणिपुर में भी यही सियासी ड्रामा सामने आया जब कांग्रेस ने 28 सीटें जीतीं और जादुई आंकड़े से महज 3 अंकों की दूरी पर होने के बावजूद सरकार बनाने में नाकामयाब रही. मणिपुर में 60 विधानसभा सीटें हैं यहां पर कांग्रेस को 28 सीटें मिली थी वह सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन बीजेपी ने 21 सीटों पर जीत के साथ ही 10 विधायकों के समर्थन का जुगाड़ कर लिया और यहां भी अपनी सरकार बना ली एक बार फिर कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा.

इस तरह से पिछले कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद बड़ी पार्टियों के सरकार नहीं बना पाने की वजह से राज्यपाल की भूमिका संदिग्ध दिखाई दी. अगर हम कर्नाटक, गोवा, मणिपुर, मेघालय और बिहार के विधानसभा चुनावों के उदाहरण देखें तो सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी ही विपक्ष में बैठी है. इन चुनावों में जनता ने जिसे सबसे ज्यादा सीटें दीं उस राजनीतिक दल को विपक्ष में बैठना पड़ा. ऐसे में हम ये कह सकते हैं कि लोकतंत्र की उस परिभाषा को अब बदलने की जरूरत है जो कहता था कि लोकतंत्र, जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन है.