नौ दिसंबर 1946 को जन्मीं सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) एक बार फिर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बन गई हैं. दिसंबर में उनके बेटे और सांसद राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को कांग्रेस का नया अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन लोकसभा चुनाव 2019 में करारी हार के बाद उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. शनिवार को सीडब्ल्यूसी की हुई बैठक में सोनिया गांधी को एक बार फिर कांग्रेस की कमान सौंपी गई हैं.
यह भी पढ़ेंः सोनिया गांधी बनीं कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष, CWC की बैठक में लिया गया बड़ा फैसला
14 मार्च, 1998 को कांग्रेस अध्यक्ष बनीं सोनिया गांधी ने तकरीबन 20 साल बाद दिसंबर 2018 में पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ दी थी. 71 साल की उम्र में खुद को वे एक तरह से सक्रिय राजनीति से खुद को अलग कर ली थीं. पार्टी अध्यक्ष के तौर पर उनका करीब 20 साल का सफर समय के पहिए का एक पूरा चक्कर घूमने जैसा है.
1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी राजनीति में आने को तैयार नहीं थीं. इसके बाद सियासत में उनकी भागीदारी धीरे-धीरे शुरू हुई. पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे प्रणब मुखर्जी अपने संस्मरण में लिखते हैं कि सोनिया गांधी को कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय करने के लिए पार्टी के कई नेता मनाने में लगे थे. उन्हें समझाने की कोशिश की जा रही थी कि उनके बगैर कांग्रेस खेमों में बंटती जाएगी.
यह भी पढ़ेंः जयपुर की पूर्व राजकुमारी और सांसद दीया बोलीं- भगवान राम के वंशज पूरी दुनिया में हैं
इसके बाद सोनिया गांधी ने कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय होने का निर्णय लिया. वे कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार 1997 में गईं. उन्होंने पार्टी में कोई पद लेने के बजाये पार्टी के लिए प्रचार से अपना राजनीतिक काम शुरू किया. इसके बाद कांग्रेस में हुए एक असाधारण उलटफेर में उन्हें 14 मार्च, 1998 को अध्यक्ष बना दिया गया. उस समय के अध्यक्ष सीताराम केसरी ने कहा था कि सोनिया गांधी के लिए वे अध्यक्षता छोड़ने को तैयार हैं. इसी को आधार पर बनाकर कांग्रेस कार्यसमिति ने केसरी को अध्यक्ष पद से हटाने और सोनिया को अध्यक्ष मनोनीत करने का निर्णय ले लिया. याद रहे कि इस बीच 1998 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था.
अध्यक्ष बनने वालीं सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 1999 का लोकसभा चुनाव लड़ीं, लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा ने बढ़त बनाते हुए एक बार फिर से सरकार बना ली. यहां यह भी याद रखना चाहिए कि 1999 का लोकसभा चुनाव कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि में हो रहा था और राजनीतिक विश्लेषकों ने माना कि वाजपेयी की अगुवाई वाली भाजपा को उस चुनाव में इस युद्ध का राजनीतिक लाभ मिला था.
बतौर अध्यक्ष सोनिया गांधी की सूझबूझ और सियासी समझ सबसे प्रमुखता के साथ दिखीं 2004 के लोकसभा चुनावों की तैयारियों के वक्त. सोनिया गांधी ने सत्ताधारी भाजपा के मुकाबले के लिए एक प्रभावी गठबंधन तैयार करने के लिए काफी मेहनत की. कांग्रेस से मिलती-जुलती विचारधारा वाले दलों को वे कांग्रेस के साथ एक गठबंधन में लाईं.
जिन सीटों पर कांग्रेस को चुनाव लड़ना था, उन सीटों के लिए उम्मीदवारों के चयन पर भी सोनिया गांधी ने विशेष ध्यान दिया. इसे बिहार की औरंगाबाद लोकसभा सीट के उदाहरण के जरिए समझा जा सकता है. 1999 के चुनावों में यहां से कांग्रेस की श्यामा सिंह सांसद चुनी गई थीं. लेकिन 2004 के चुनाव आते-आते वहां ऐसा माहौल बना कि उनका हारना तय माना जा रहा था. लेकिन दूसरी तरफ जमीनी स्तर पर यह माहौल भी था कि अगर उनके पति और दिल्ली पुलिस के कमिश्नर रहे निखिल कुमार कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़ें तो उनकी जीत पक्की है. कांग्रेस ने उन्हें लड़ाया और यह सीट बचाए रखी. कांग्रेस नेता बताते हैं कि ऐसी ही सूझबूझ सोनिया गांधी ने कई सीटों पर दिखाई.
कुल मिलाकर इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस की अध्यक्षता में 2004 में केंद्र की सरकार में कांग्रेस की वापसी हो गई. भाजपा की ओर से दिए गए ‘भारत उदय’ और ‘फील गुड’ जैसे नारे धरे के धरे रहे गए. लेकिन जब प्रधानमंत्री बनने की बारी आई तो सोनिया गांधी ने ‘अंतरात्मा’ की आवाज पर प्रधानमंत्री बनने से मना कर दिया.
यह भी पढ़ेंःभारतीय उच्चायुक्त अजय बिसारिया पाकिस्तान से वापस दिल्ली के लिए हुए रवाना
मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की प्रमुख के तौर पर सोनिया गांधी सरकार चलाने के राजनीतिक पक्ष को देखती रहीं. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष के तौर पर सरकार के नीतिगत पक्ष को भी उन्होंने प्रभावित किया. नीतियां बनाने के मामले में अधिकार आधारित नीतियों को प्रमुखता दिए जाने को सोनिया गांधी का योगदान माना जा सकता है. कांग्रेस के 10 साल के कार्यकाल में सूचना का अधिकार, रोजगार का अधिकार, वन अधिकार, भोजन का अधिकार और उचित मुआवजे और पुनर्वास का अधिकार संबंधित कानून सरकार ने बनाए.
लेकिन कांग्रेस को अब तक की सबसे बड़ी हार सोनिया गांधी के ही नेतृत्व में मिली. 2014 के उस झटके से पार्टी अब तक संभल नहीं पाई है. कुल मिलाकर परिस्थिति वैसी ही बन गई है जैसी सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के पहले थी. राजनीतिक तौर पर कांग्रेस चुनौती पूर्ण दौर में है. उधर, भाजपा अब तक के अपने सबसे प्रभावशाली दौर में है.
Source : न्यूज स्टेट ब्यूरो