Gandhi Jayanti: ये है गांधी जी के तीन बंदरों का मलतब, आज भी इसमें छिपा संदेश है प्रासंगिक
एक दिन एक प्रतिनिधिमंडल गांधी जी से मिलने आया, मुलक़ात के बाद प्रतिनिधिमंडल ने गांधी जी को भेंट स्वरूप तीन बंदरों का सेट दिया.
नई दिल्ली:
मंगलवार को गांधी जी की 150वीं वर्षगांठ मनाई जाएगी. गांधी ने आज से 100 साल पहले जो बातें देशहित में कही थी फिर चाहें वो स्वरोजगार हो, गांव के विकास की बात हो या फिर लघु उद्योग को बढ़ावा देने की बात ये सभी आज के दौर में काफी प्रसांगिक जान पड़ते हैं. महात्मा गांधी के विचार, आंदोलनों में उनकी भूमिका के अलावा आपने उनसे जुड़ी तीन बंदरों की कहानी भी सुनी होगी. गांधी जी के ये बंदर बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न बोलो के सिद्धांतों को दर्शाते हैं.
माना जाता है कि बापू के यह तीन बंदर चीन से आए थे. एक दिन एक प्रतिनिधिमंडल गांधी जी से मिलने आया, मुलक़ात के बाद प्रतिनिधिमंडल ने गांधी जी को भेंट स्वरूप तीन बंदरों का सेट दिया. गांधीजी इसे देखकर काफी ख़ुश हुए. उन्होंने इसे अपने पास जिंदगी भर संभाल कर रखा. इस तरह ये तीन बंदर उनके नाम के साथ हमेशा के लिए जुड़ गए. गांधी जी के तीन बंदर को अलग-अलग नाम से जाना जाता है.
मिजारू बंदर- इसने अपने दोनों हाथों से अपनी दोनों आंखें बंद कर रखी हैं. इस बंदर का संदेश है बुरा मत देखो.
किकाजारू बंद- इसने अपने दोनों हाथों से अपने दोनों कान बंद कर रखे हैं. इस बंदर का संदेश है बुरा मत सुनो.
इवाजारू बंदर- इसने अपने दोनों हाथों से अपना मुंह बंद कर रखा है. इस बंदर का संदेश है बुरा मत बोलो.
गांधीजी के इन तीन बंदरों को जापानी संस्कृति में शिंटो संप्रदाय द्वारा काफी सम्मान दिया जाता है. माना जाता है कि ये बंदर चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस के थे और आठवीं शताब्दी में ये चीन से जापान पहुंचे. उस वक्त जापान में शिंटो संप्रदाय का बोलबाला था. जापान में इन्हें 'बुद्धिमान बंदर' माना जाता है और इन्हें यूनेस्को ने अपनी वर्ल्ड हेरिटेज लिस्ट में शामिल किया है.
आरटीआई में मिली जानकारी के मुताबिक गांधीजी की मृत्यु के बाद तीनों बंदरों को उनकी याद स्वरूप नई दिल्ली के राजघाट स्थित राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय में रखवा दिया गया था. इन तीनों बंदरों को आज भी राष्ट्रीय संग्रहालय में देखा जा सकता है.
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संस्कृति मंत्रालय के अधीन गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति ने बताया कि वर्ष 1948 में गांधी जी की मृत्यु के बाद उनकी निजी यादगार की वस्तुएं दिल्ली, पुणे और साबरमती आश्रम अहमदाबाद के संग्रहालय को दे दी गई थी.
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