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अकबर इलाहाबादी (फोटो- ट्विटर)
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अकबर इलाहाबादी (फोटो- ट्विटर)
सभी देशों में व्यंग्य साहित्य के एक तीखे औजार के रूप में जाना जाता रहा है। मार्क ट्वेन, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, चेखव, भारतेंदु से लेकर हरिशंकर परसाई तक अपनी व्यंग्य शक्ति के लिए मशहूर रहे हैं।
उर्दू में भी एक शायर ऐसा हुआ है जिसने अपने शायरी में व्यंग्य को एक मारक शक्ति के रूप में इस्तेमाल किया है। अकबर इलाहाबादी के शेर में जितना हास्य है उतनी ही तंज (व्यंग्य) की तेज छौंक भी है।
यूं ही नहीं ये ग़ज़लें बेहद मकबूल हुईं। उन्हें कई फ़नकारों ने मौसिक़ी (संगीत) में भी पिरोया है। अकबर इलाहाबादी एक हास्य कवि के तौर पे जाने जाते हैं। लेकिन सच ये है कि उन की शायरी गहरा सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्य रखती है।
पियक्कड़ों के पक्ष में लिखी ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी का जन्म सन् 1846 में और मृत्यु सन् 1921 में हुई। तंज का बाण जब चला तो कभी शराब को हाथ न लगाने वाले इस शायर ने पियक्कड़ों के पक्ष में ग़ज़ल कह डाली।
हंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है
एक शायर जिंदगी को सबसे करीब से देखता है। अकबर के कई शेर इस बात को साबित करते हैं। उनका एक शेर उन लोगों पर व्यंग है जो कम्पीटिशन और दौड़-भाग के माहौल में पिसते रहते हैं और उसे ही सभ्यता का विकास मानते हैं।
हुए इस क़दर मुहज़्ज़ब कभी घर का न मुँह देखा
कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर
औरतों के साथ हो रहे जुल्मों और मुस्लिम समाज में पर्दा की कुरीतियों के खिलाफ लिखते हुए अकबर कहते हैं कि...
बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ
'अकबर' ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे -'आपका पर्दा कहाँ गया?'
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया।
अकबर ने इश्क पर भी क्या खूब लिखा है।
इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं
कि हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है
डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत पर भी तंज कसते हुए उन्होंने चुटकी ली। उन्होंने डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत में द्वारा चंचल बुद्धि बंदरों को फिट करने पर भी तंज कसते हुए पूछा कि सभी बंदर आदमी क्यों नहीं बने? जिसमें आदमी बनने की संभावना थी वह आदमी ही तो ठहरा न? हमारे मूरिस (पूर्वज) बंदर हुए तो यह विकासवाद न हुआ इल्ज़ाम हो गया।
डारून साहब हकीकत से निहायत दूर थे
मैं न मानूँगा कि मूरिस आपके लंगूर थे'
कोई भी शायर अपने समय का बड़ा शायर तभी माना जाता है जब वह तत्कालीन सियासत के लड़खड़ाने पर उस पर तंज कसे। उन्होंने सियासत पर तंज कसते हुए लिखा है कि राजनेता आते हैं और देश को लूट कर चले जाते हैं। जनता केवल दबी आवाज़ में बात करती रहती है।
शबे-तारीक (अंधेरी रात), चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा
ऐसे कालजयी शायरी, कविताएं और नज़्म लिखने वाले अकबर इलाहाबादी इस दुनिया के प्रति अपनी एक राय रखते थे। उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं थआ कि दुनिया रूपी बाजार से उन्हें क्या मिलेगा और क्या नहीं। उन्होंने अपने एक शायरी में कहा है कि दुनिया में रहकर भी वह इस दुनिया के तलबगार नहीं है।
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं
बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूं…
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HIGHLIGHTS
Source : Sankalp Thakur