आज़ादी के 70 साल: क्या आज़ादी की लड़ाई का ब्रेक था चौरी चौरा कांड 1922?
5 फरवरी 1922 को गोरखपुर के चौरी-चौरा में किसानों के एक समूह को पुलिस द्वारा रोकने के बाद, गुस्साए भीड़ ने वहाँ के थाने में ही आग लगा दी। जिसमें क़रीब 22 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई थी।
highlights
- 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर के चौरी-चौरा में भीड़ ने थाने में आग लगा दी थी
- इस घटना में 22 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई थी
- घटना से स्तब्ध हुए गांधी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया था
नई दिल्ली:
चौरी- चौरा की घटना ने कई क्रांतिकारियों को अहिंसात्मक रूप से चलने वाले गांधी के विपरीत खड़ा कर दिया। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के बाद भारत में आज़ादी को लेकर लड़ाई पूरी तरह तेज़ हो गई थी, क्योंकि अंग्रेज़ों ने विश्व युद्ध के बाद भारत को आज़ाद करने के अपने वादे से मुंह मोड़ लिया था।
जालियांवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919) और रॉलेट एक्ट के पास होने के बाद भारतीयों में अंग्रेज़ी सरकार को लेकर ज़बरदस्त विद्रोह दिखा। कलकत्ता अधिवेशन में पारित प्रस्तावों, जिसमें स्वराज्य की प्राप्ति और विदेशी सामानों का बहिष्कार कर स्वदेशी आंदोलन को बढ़ावा देने जैसी चीज़े थीं, इससे ब्रिटिश शासन की आर्थिक और सामाजिक स्तंभों को ख़त्म करना था।
इसलिए सन 1920 में गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन विस्तार स्वरूप ले लिया। यह एक ऐसा राष्ट्रव्यापी आंदोलन बन गया, जिससे लगा कि देश अब बहुत जल्द ही आज़ाद हो जाएगा। पूरा देश गांधी के नेतृत्व पर खड़ा होकर असहयोग आदोलन की लड़ाई लड़ रहा था। लाखों किसान- मज़दूर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक साथ खड़े हो गए थे। अंग्रेज़ी हुकूमत 1857 के विद्रोह के बाद एक बार फिर पूरी तरह हिल चुका था।
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लेकिन 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर के चौरी-चौरा में किसानों के एक समूह को जब पुलिस ने रोका, तो गुस्साई भीड़ ने वहां के थाने में ही आग लगा दी। जिसमें क़रीब 22 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई थी। यह एक ऐसा समय था, जब पूरे भारत को सड़कों पर एक साथ देख दिल्ली से ब्रिटेन तक पूरी अंग्रेज़ी हुकूमत हिल गया था। लेकिन चौरी-चौरा के हिंसात्मक घटना के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया। क्योंकि गांधी ने बिना हिंसा के आंदोलन करने का संकल्प ले लिया था।
इसमें कोई शक नहीं कि गांधी की अहिंसात्मक शैली एक विचारधारा के रूप में देश को एकजुट कर रही थी। लेकिन असहयोग आंदोलन के स्थगन के बाद कांग्रेस के कई सदस्यों और क्रांतिकारियों ने गांधी के इस निर्णय पर उनका विरोध किया।
इसके बाद गुस्साए सदस्यों ने एक नई स्वराज्य पार्टी बना ली, क्योंकि उनका मानना था कि देश में स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था। ऐसे वक़्त में आंदोलन को स्थगित करना पूरी लड़ाई को कमज़ोर करना था। और वैसे भी, इतने बड़े देश के किसी कोने में हुई हिंसा से पूरे आंदोलन को स्थगित करने को, मोतीलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे नेताओं ने भी सही नहीं माना। और फिर 1922 में आज़ाद होते दिख रहे भारत की लड़ाई आगे बढ़ती चली गई।
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