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आजादी के 70 साल: कहानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के 'आजाद हिंद फौज' की

सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की कमान संभाल ली। उन्होंने 1943 में टोक्यो रेडियो से घोषणा की, 'अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे।

Updated on: 14 Aug 2017, 05:17 PM

नई दिल्ली:

15 अगस्त 1947, यानी ठीक 70 साल पहले हम अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुए। इस दिन को हर भारतीय जश्न और जुनून के साथ मनाता रहा है और मनाता रहेगा। लेकिन यह आजादी कैसे मिली, हम आज कैसे बगैर बंदिशों के सबसे मजबूत लोकतंत्र में जी रहे हैं। इसकी लंबी कहानी है। जिसमें 'तुम मुझे खून दो, मैं तुझे आजादी दूंगा' के जज्बों के साथ लाखों जीवन की कुर्बानी है, 'जय हिंद' की आवाजों के साथ हर भारतीय का साथ है, 'कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा' जैसे गाने हैं, सुभाष चंद्र बोस, रासबिहारी बोस और कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल जैसे हीरो हैं।

हम बात कर रहे हैं 'आजाद हिंद फौज' की। जिसकी स्थापना टोक्यो (जापान) में 1942 में रासबिहारी बोस ने की थी। उन्होंने 28 से 30 मार्च तक फौज के गठन पर विचार के लिए एक सम्मेलन बुलाया और इसकी स्थापना हुई। जिसका उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना था। आजाद हिंद फौज के निर्माण में जापान ने काफी सहयोग दिया। देश के बाहर रह रहे लोग इस सेना में शामिल हो गये।

बाद में सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की कमान संभाल ली। उन्होंने 1943 में टोक्यो रेडियो से घोषणा की, 'अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा।'

बोस ने फौज की बिग्रेड को नाम दिये- 'महात्मा गांधी ब्रिगेड', 'अबुल कलाम आजाद ब्रिगेड', 'जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड' और 'सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड'। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज खां थे।

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नेता जी के नाम से मशहूर सुभाष चंद्र बोस ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने आजाद हिंद फौज से 'सुप्रीम कमाण्डर' के रूप में सेना को सम्बोधित किया और 'दिल्ली चलो' का बिगुल फूंका। सेना के जवान दहाड़ते बाघ के चित्र वाले झंडे को लहराते और 'कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा' गाना गुनगुनाते सिंगापुर से चल पड़े।

21 अक्टूबर 1943 के सुभाष बोस ने आजाद हिंद फौज के कमांडर की हैसियत से भारत की अस्थायी सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी।

अपने आक्रामक अंदाज के जाने जाने वाले नेताजी ने जुलाई, 1944 को रंगून से रेडियो पर गांधी जी को संबोधित किया और राष्ट्रपिता कहकर पुकारा। उन्होंने कहा, 'भारत की स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं।'

आजाद हिन्द फौज जापानी सैनिकों के साथ रंगून से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती हुई 18 मार्च 1944 को कोहिमा और इम्फाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुंच चुकी थी।

22 सितम्बर 1944 को बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा, 'हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की मांग है।' बोस के इन शब्दों ने हर एक भारतीयों को झकझोर दिया। बच्चे-बूढ़े-जवान सभी उनके साथ जुड़ने लगे।

आजाद हिंद फौज जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा और बर्मा से युद्ध लड़ा। पहली बार कोहिमा में भारतीय झंडा लहराया गया। लेकिन दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के कारण आजाद हिंद फौज को भारी नुकसान हुआ। खराब मौसम भी सेना पर कहर बनकर टूटी। आजाद हिन्द फौज के सैनिक और अधिकारियों को अंग्रेजों ने 1945 में गिरफ्तार कर लिया।

अंग्रेजों का पलड़ा भारी देख सुभाष चंद्र बोस ने रूस से सहायता मांगने का विचार किया। 18 अगस्त 1945 को जब वह मंचूरिया की ओर जा रहे थे, तभी उनका विमान लापता हो गया और वह फिर कभी नजर नहीं आए।

23 अगस्त, 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन आते वक्त 18 अगस्त, 1945 को एक विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें नेताजी गंभीर रूप से जल गए और ताइहोकू सैन्य अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ दिया। हालांकि इस घटना की पूरी तरह से कभी पुष्टि नहीं हो पाई और उसका रहस्य अभी तक बरकरार है।

कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह और मेजर जनरल शाहनवाज खान के खिलाफ कोर्ट मार्शल किया गया। 17000 जवानों के खिलाफ केस चला। तीनों सैन्य अधिकारियों पर मुकदमा दिल्ली के प्रसिद्ध लाल किले में चला। इस कोर्ट मार्शल को 'रेड फोर्ट ट्रायल' के नाम से भी जानते हैं।

कांग्रेस ने केस लड़ने के लिए डिफेंस टीम बनाई। जिसका नेतृत्व सर तेज बहादुर सप्रू ने किया। जिसमें भूलाभाई देसाई, पंडित जवाहरलाल नेहरू, बख्शी सर टेकचंद, सर दिलीपसिंह, आसफ अली, सुल्तान यार खान, राय बहादुर बद्रीदास, पी.एस. सेन, रघुनंदन सरन, कैलाशनाथ काटजू, जुगलकिशोर खन्ना जैसे देश के नामी-गिरामी वकील शामिल थे। वकील भूलाभाई देसाई ने अपनी दलीलों के माध्यम से मुकदमे को आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के हक में कर दिया।

लेकिन फिर भी इन तीनों की फांसी को सजा सुनाई गयी। केस के दौरान सड़कों पर पूरे भारत में देशभक्ति का ऐसा ज्वार भड़का। लोगों ने नारे लगाए 'लाल किले को तोड़ दो, आजाद हिन्द फौज को छोड़ दो।' अंग्रेजों को फैसला बदलना पड़ा। और फांसी की सजा माफ किया गया और अंत में भारत भी छोड़ना पड़ा।

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