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शिवसेना का हिन्दुत्व और कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता कैसे चलेगी साथ-साथ? पढ़ें इनसाइड स्टोरी

महाराष्ट्र में शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने जा रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि विचारों से एक दूसरे से बिल्कुल अलग पार्टियां महाराष्ट्र को कैसे चला पाएंगे.

Updated on: 27 Nov 2019, 10:46 PM

नई दिल्ली:

महाराष्ट्र की सियासी तस्वीर अब पूरी तरह साफ हो गई है. महाराष्ट्र की जनता को मिली-जुली विचारधारा वाली सरकार मिलने जा रही है, जहां एक तरफ हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली शिवसेना होगी, तो दूसरी तरफ एनसीपी और कांग्रेस जो धर्मनिरपेक्षता की बात करती है. सवाल यह है कि कांग्रेस और शिवसेना की राहें एक दिशा में कैसे बढ़ेगी जो हर कदम एक दूसरे की आलोचना करती आ रही है. एक वीर सावरकर का प्रशंसक है तो दूसरा विरोधी. उद्धव ठाकरे ने एक समारोह में कहा था कि अगर सावरकर इस देश के प्रधानमंत्री होते तो पाकिस्तान का जन्म नहीं हुआ होता. हमारी सरकार (बीजेपी-शिवसेना) हिन्दुत्व की है और हम उन्हें भारत रत्न देने की मांग करते हैं.'

वहीं कांग्रेस वीर सावरकर को गांधी की हत्या की साजिश रचने वालों की भूमिका में देखती है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस को अब वैसे लोग भी स्वीकार्य हैं जो सावरकर को भारत रत्न देने की मांग करते हैं. जो जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और बाबरी मस्जिद विध्वंस का समर्थन करते हैं. वहीं शिवसेना के लिए भी सवाल खड़ा होता है कि क्या वह कांग्रेस के साथ आने के बाद हिंदुत्व की राजनीति से दूर हो जाएंगे.

कई मौके पर शिवसेना ने कांग्रेस का दिया है साथ

लेकिन एक दूसरे के विरोधी होने के बावजूद कई मौकों पर दोनों साथ नजर आए. मसलन शिवसेना उन पार्टियों में शुमार है जिसने 1975 में इंदिरा गांधी के आपातकाल का समर्थन किया था. उस वक्त शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने कहा था कि आपातकाल देशहित में है.

आपातकाल के खत्म होने के बाद मुंबई में नगर निगम चुनाव हुआ. तब ना तो कांग्रेस को बहुमत मिला और ना ही बीजेपी को. तब बाल ठाकरे ने मुरली देवड़ा को मेयर बनने में समर्थन किया था. 1980 में बाल ठाकरे का समर्थन कांग्रेस को मिला. अब्दुल रहमान अंतुले को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनने में शिवसेना ने मदद की थी.

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2007 में तो शिवसेना ने बीजेपी के उम्मीदवार को राष्ट्रपति बनाने की बजाय कांग्रेस उम्मीदवार प्रतिभा देव सिंह पार्टी को समर्थन दिया. यह सिलसिला प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनवाने तक जारी रहा. बताया जाता है कि बाल ठाकरे ने शरद पवार को प्रधानमंत्री बनाने पर भी समर्थन देने की बात की थी.

मतभेद तो है अछूत वाली नहीं है स्थिति

ऐसे में जाहिर है कि कांग्रेस और शिवसेना के बीच कुछ बिंदुओं पर मतभेद तो है लेकिन अछूत वाली स्थिति नहीं है. कांग्रेस शिवसेना से कई बार समर्थन ले चुकी है. ऐसे में शिवसेना को समर्थन देने से पीछे हटना कांग्रेस के लिए सही कदम नहीं होगा. कांग्रेस ये भी तर्क दे रही है कि धर्मनिरपेक्षता के लिए बीजेपी को सत्ता से दूर रखना ज्यादा जरूरी है.

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इन सब के बावजूद शिवसेना और कांग्रेस का साथ कितना चलेगा उसका जवाब वक्त के गर्त में है. लेकिन सवाल कई और है कि क्या कांग्रेस शिवसेना के साथ अगामी चुनाव लड़ेगी? अगर हां तो फिर शिवसेना की हिंदुत्व और कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता वाली छवि का क्या होगा? बाकि जनता तो सब जानती है.